एक अनकही अकविता
प्रेम,
बात ही न करो,
कभी किया नहीं।
हृदय की संसद,
सत्र दर सत्र,
बजट पास हुआ नहीं।
हताश हुआ नहीं।
प्रेम,
आज भी,
जेहन में है।
जमीन से,
दूर बहुत दूर।
प्रेम,
शिखर से उतरा,
खोह में विलीन हुआ।
मैं और रेगिस्तान,
अपनी जगह पर हैं।
प्रेम,
अब स्वप्न है,
जागूँगा,
टूट जायेगा।
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