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मंगलवार, 31 मई 2022

हिन्दी मात्रा प्रयोग

बिन मात्रा के अजगर, अदरक, कटहल, शलजम, कलम।
हलचल, बरतन, खटपट, सरपट, टमटम, कलकल, जलम।।1।।
आ से आम, आग में भूना, खट्टा मीठा स्वाद।
खाना-दाना पेड़ दे रहा, खुद खाता है खाद।।2।।
किरन किशन से झगड़ा करती, बिना बात की बात।
इमली तो इठलाती फिरती, इतराती इफरात।।3।।
ईश्वर का ईनाम सभी कुछ, मीठा, तीखा, फीक।
खीर, खरी, खीरा, ककड़ी की, बात बड़ी बारीक।।4।।
उड़द, उड़ीसा, उबटन, उपला, उधम अउर उत्पात।
सुघड़, माधुरी, सुन्दर, युवती, फुलवारी, पुलकात।।5।।
सूटर पहने फुल्लू  फूले, ऊटपटाँगा ऊन।
ऊँट पूँछ कूबड़ को भूला, धाँसू देहरादून।।6।।
ऋषि के गृह मृग-मृगी टहलते, मृगतृष्णा से दूर।
कृषक, कृष्ण, कृषि, कृपा, गृहस्थी, घृत अमृत भरपूर।।7।।
एक अनेक नेक क्यों चरचे, बाँचे लेख अनन्त।
साँचे राँचे प्रेम नेम में, राधे रटते संत।।8।।
ऐरावत ने ऐनक पहनी, भैया है हैरान।
गैया-भैंस न शैय्या छोड़े, हो गये हैं शैतान।।9।।
ओंकार को रोज भजो जो, बोलो हरिहरिओम।
रोग, शोक, मद, मोह, छोड़कर, घूमो धरती-व्योम।।10।।
औरत, औषधि, मौसी, भौजी, लौकी, नौका, चौक।
गौरव, रौनक, रौशन, यौवन, दौलत, लौटा, शौक।।11।।
नग को नंग बना देती है, जग में करती जंग।
अं की बिन्दी का कमाल है, रग में भरती रंग।।12।।
अः की बात निराली कितनी, मजेदार निशि-अहः।
छः दिन कर्म रविः विश्रामः, सुखपूर्णः मम मनः।।13।।

मंगलवार, 24 मई 2022

जुआ वैध या अवैध

मैं अपने सुधी पाठकों से यह जानना चाहता हूँ कि क्या देश में जुआ खेलना वैध है अथवा अवैध। या फिर वैध और अवैध जुए के मध्य कोई विभाजक रेखा है? 
हमारे समाज में जुए का इतिहास बड़ा पुराना है।  महाभारत काल से भी पुराना। राजा नल अपना सबकुछ जुए में हार गए थे यह युधिष्ठिर से बहुत पहले की कहानी है। मेरा जिस जुए से प्रथम बार परिचय हुआ वह शायद गाँव में गोली-कंचों का अथवा पैसों का रहा। लोगों को खेलते देखा बस कभी कभार खुद भी खेला होगा कुछ याद नहीं। इस संदर्भ में मेरे पिता जी अति कठोर थे। फिर लोगों को ताश खेलते देखा किन्तु खेला कभी नहीं इतना स्पष्ट है। उन दिनों कभी कभी पुलिस जुआरियों के विरुद्ध कार्यवाही कर देती थी। फिर दौर आया लॉटरी का। सबसे अधिक परिष्कृत और सरकार के द्वारा संचालित। लाखों परिवार विनष्ट हो गए लॉटरी के चक्कर में।अन्ततः सरकार ने बन्द करा दिया। यद्यपि लॉटरी दो चार बार लेखक ने भी खरीदी।
लॉटरी बन्द हुई तो सट्टा शुरू हो गया। अभी चल रहा है। जब तब कार्यवाही भी होती है किन्तु परिणाम शून्य। अब तो सट्टा अन्तर्राष्ट्रीय हो गया है।
कुछ समय से जुए का नया स्वरूप आया है। इन्टरनेट पर ऐप डाउनलोड करो। खेलो जीतो और खाते में ट्रांसफर करो। विज्ञापन भी इसका जबरदस्त। "हैलो दोस्तों यह कार मैंने लूडो खेलकर जीती है। तुम भी जीत सकते हो। ऐप डाउनलोड करो। साइट का पता है कखग.com।"
फिर एक्सप्रेस की स्पीड से चेतावनी, "कृपया 18 वर्ष से ऊपर के लोगों के लिए। वित्तीय जोखिम की संभावना शामिल। अपनी जिम्मेदारी और जोखिम पर खेलें। इसकी लत लग सकती है।" बहुत बार क्या कहा जा रहा है समझ नहीं आता।
मेरा प्रश्न यही है कि इस प्रकार का जुआ यदि ऑनलाइन सही है तो ऑफलाइन गलत किस प्रकार से है। यदि दोनों सही हैं तो एक पीछे पुलिस दौड़ती है और दूसरे कमरों में बैठ कर जुआ खेलते रहे हैं यह बिल्कुल उचित नहीं। यदि दोनों गलत हैं तो सरकार को चाहिए कि अविलम्ब ऐसे जुए और साइटों को बंद करें जो युवा शक्ति को अनुत्पादक व हानिकारक व्यवसायों के लिए प्रेरित कर रही हैं।
मैं समझता हूँ कि वकील लोग जो अनाप शनाप मामले ले जाकर कोर्ट में बदनामी झेलते हैं वे इस मुद्दे पर कुछ सार्थक करके सम्मान अर्जित कर सकते हैं। सरकार में बैठे लोगों का भी यह दायित्व है कि युवा पीढ़ी को अंधकार के गर्त में जाने से रोके।











गुरुवार, 19 मई 2022

मुबारक

1
तुम्हें हुक्मरानी तुम्हारी मुबारक,
हमें दिन भरे की दिहाड़ी मुबारक,
कहाँ काशी काबा में सिर को घुसेड़ूँ,
नचाए सभी को मदारी मुबारक।
2
सब हवा के साथ बहते जा रहे हैं,
जागरण का ध्वज सभी लहरा रहे हैं,
मैं विवश हूँ देखने को पूर्व दिशि मेंं,
मेघ कुछ उत्पात हित गहरा रहे हैं।
3
चोंचों में जो कीट पकड़ना चाह रहे,
वक्ष धरा का तोड़ा जाए चाह रहे,
वहीं घास की पत्ती में जो जन्तु छिपे,
हर हलचल पर घबराकर भर आह रहे।

मदारी-भगवान, 

सोमवार, 16 मई 2022

बुद्ध ने क्या दिया

फेसबुक पर एक भाई ने पूछा कि गौतम बुद्ध ने देश को दिया क्या है? तो मैं अल्पबुद्धि व्यक्ति कुछ लिखने का साहस कर रहा हूँ। कुछ अनुचित लिखा हो तो क्षमा करें।
बन्धु वर्तमान में ऐसे विवादों की आवश्यकता नहीं है। गौतम बुद्ध भारतीय वाङमय में ऐसे विचारक हैं जिन्होंने समाज को एक नवीन मानवतावादी दर्शन प्रदान किया जो सत्य, प्रेम और अहिंसा पर आधारित था। वह महात्मा अगस्त्य(शैव मत के प्रचारक) के पश्चात ऐसे दूसरे विद्वान थे जिन्होंने भारतीय मनीषा को सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित कर पाने में और बड़े बड़े राजा महाराजाओं को अपने सिद्धांतों से अभिभूत करने में सफलता पाई थी।  गौतम बुद्ध ने जिस मध्यम मार्ग को अपनाने की बात कही है वह ऐसा मार्ग है जिसकी उपेक्षा करने के कारण हम असंख्य सुविधाओं से युक्त होने पर भी विषादग्रस्त हैं।
रही बात सनातन धर्म व बौद्धों के बीच मतभिन्नता और तोड़फोड़ की तो विगत की बात है जिस की चर्चा न हो तो बेहतर।
गौतम बुद्ध ने अपने किसी शिष्य को सनातन धर्म पर आक्रमण के लिए नहीं उकसाया, न ही उन्होंने अन्य धर्मों के विनाश की बात कही। यदि कालांतर में लोग उनके पदचिन्हों पर नहीं चले तो दोष हमारा है। 
आज आवश्यकता उनका विरोध करने की है जो यह कहते हैं कि उनका मत ही सर्वश्रेष्ठ है और अन्य मतों के अनुयायियों को जीवन का अधिकार नहीं है।
हम अत्यधिक सौभाग्यशाली राष्ट्र हैं कि भारतीय मूल का कोई भी मत शैव, शाक्त, वैष्णव, बौद्ध, जैन, सिख आदि अन्य धर्म व मतों के उच्छेद की चर्चा नहीं करता। अपितु सभी लोगों को शान्ति से अपने अपने आचार विचार को मानने की स्वतंत्रता देता है। हम तो हम तो चार्वाक जैसे नास्तिक का दर्शन भी स्वीकार कर भारतीय वाङ्मय में स्थान प्रदान करते हैं।
बौद्धों और सनातनियों के मध्य जो झगड़े के आरोप लगते हैं मुझे निजी स्तर पर समझ नहीं आते। जो समाज मुक्त हृदय से महाभारत काल में यवनों, शकों, हूणों से सम्बन्ध स्थापित करता है। चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में यूनानियों से व्यापारिक व बौद्धिक सम्बन्ध स्थापित करता है। प्रथम शताब्दी में ईसा मसीह को भारत आकर ज्ञान प्राप्त करने का अवसर देता है। दूसरी तीसरी शताब्दी में अरबों से व्यापार करता है वह बौद्ध धर्म के लोगों को लेकर इतना असहिष्णु रहा हो समझ नहीं आता। हाँ यह हो सकता है कि राजे महाराजों ने धर्म का नाम लेकर अपना उल्लू सीधा किया हो और निरीह जनता को बौद्ध व सनातन धर्म के नाम पर लड़ाया हो।
तो हाथ जोड़कर समस्त पाठकों से निवेदन है कि बुद्ध को बुद्ध ही रहने दें और बुद्ध बनें। गौतम बुद्ध न सही बुद्धिमान सही।

स्पीड और सुरक्षा

कितना अच्छा था कि अयारी से गुजरने वाला शाहाबाद पिहानी मार्ग ऊबड़ खाबड़ था। आप हिचकोले खाते हुए चलते थे और कहीं देर से पहुँचने पर हाथ मलते थे। धन्यवाद विधायिका जी का जिनके प्रयासों से फर्राटा भरने वाली सड़क बनी। साथ ही समस्या खड़ी हो गई स्पीड की और सुरक्षा की।
पिछले दो दिनों में सड़क पर लगातार अलग अलग स्थानों पर तीन एक्सीडेंट दो मौतें और कम से कम चार घायल। 
हमारी बहुत बड़ी त्रुटि है कि विकसित होती तकनीक के साथ हम विकसित नहीं हुए। हमें यह तो पता है कि हमारी गाड़ी का एवरेज और अधिकतम स्पीड क्या है लेकिन हमें यह पता नहीं कि कितनी स्पीड पर हमारे लिए खतरा कितना ज्यादा है और वाहन रुकने में कितना समय और शक्ति लेता है। बन्धु सामान्य भौतिक विज्ञान का विद्यार्थी जानता है कि 40 किमी प्रति घंटा की चाल का तात्पर्य 11 मीटर प्रति सेकंड होता है और 60 किमी प्रति घंटे की चाल का तात्पर्य लगभग 17 मीटर प्रति सेकंड होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि कोई ऑब्जेक्ट आपको सड़क पर दिखे और आप एक सेकेंड के अन्दर त्वरित क्रिया करें तब भी आप ऑब्जेक्ट को हिट कर ही जाएंगे यदि ऑब्जेक्ट आपसे लगभग 15 से 20 मीटर दूर है। स्पष्ट रूप से आप खतरे में हैं। इस स्पीड पर भी।
दूसरा गति दुगुना बढ़ने से खतरा दुगुना नहीं होता बल्कि चौगुना होता है। E=mv^2 आइंस्टीन के द्रव्यमान ऊर्जा समीकरण के अनुसार ऊर्जा द्रव्यमान के अनुक्रमानुपाती और वेग के वर्ग के अनुक्रमानुपाती होती है। उस हिसाब सवारी डबल तो खतरा डबल लेकिन स्पीड डबल तो खतरा चार गुना ज्यादा। 
इस खतरे को कम कर सकते हैं हेलमेट लगा के सरकार लगातार कह रही है हेलमेट लगाओ किन्तु आप आजाद हैं। तो नहीं लगाते। आप लगा भी लें तो पैदल वाला क्या करे। वह तो निकल लिया आपकी ठोकर से।
तो भैया स्पीड कम करें साथ में सवारियों को संख्या भी सीमित करें बीमित तो करा ही लिया होगा।
सिर्फ इसी सडक़ का प्रश्न नहीं है एक्सप्रेस हाइवे प्रतिदिन दुर्घटनाएं होती हैं किसी भी लेन में चलें वाहन और.रेलिंग के मध्य दूरी लगभग शून्य होती है। झपकी का समय आधा सेकंड और कई लोगों का गन्तव्य वहीं स्थिर। 
अरे भाई समय पर पहुँचने का मतलब गन्तव्य तक पहुँचना रखिए न कि भगवान के घर। मृतकों को श्रद्धांजलि और जो लोग इस लेख को पढ़कर सचेत न हों उन्हें श्रद्धांजलि की डीबीडी।(डबल बेनिफिट डिपाजिट) 

गुरुवार, 12 मई 2022

वृद्धों की उचित देखभाल व उनके दायित्व

प्रायः फेसबुक पर चर्चा होती है कि फेसबुक पर तो माँ बाप की फोटो चेंप देते हैं और फादर्स डे-मदर्स डे मनाते हैं। माँ बाप वृद्धाश्रम में पड़े होते हैं। सबसे बड़ी गलतफहमी ये है कि सभी वृद्ध जिनकी संतानें वृद्धों की उचित देखभाल नहीं करतीं वे वृद्धाश्रम में हैं। सच यह है कि बहुत कम ही वृद्ध सौभाग्यशाली हैं जो वृद्धाश्रम में रहते हैं। अधिकांश तो बेटे बहुओं की गाली गलौज सुनते हैं या फिर तंग आकर घरबार  छोड़े हुए सड़कों पर टहलते हैं। 
ये वे माँ बाप हैं जिनमें से कुछ ने अपने बच्चों की बहुत बेहतर ढंग से परवरिश की है। थोड़े बहुत ऐसे भी हैं जो शायद इसी योग्य हैं कि वे बहू बेटों की गालियाँ सुनें। लेखक बहुत दुखी है यह देखकर कि लोग संतानों का तो रोना रोते हैं लेकिन संतान के प्रति उत्तरदायित्वों से मुँह मोड़ लेते हैं। लेखक बड़ा प्रसन्न होता है किसी वृद्ध को तंग देखकर क्योंकि लेखक का अपना अनुभव है। बहुत से मामलों में लेखक ने तंग वृद्धों को देखकर उनका इतिहास खंगाला तो अधिकांश मामलों में यही पता चला कि वृद्धों ने जो बोया वही काट रहे हैं। उन अभिभावकों का क्या जो जुए और पार्टियों में अपना समय गुजार देते हैं। न तो स्कूल की फीस समय पर जमा होती है, न कापी किताबों की उचित व्यवस्था, बालक बालिकाओं के भविष्य को लेकर अध्यापकों से परामर्श, न शुभचिंतकों के द्वारा बालक बालिकाओं की शिकायत किये जाने पर उचित कार्यवाही, बीमार होने पर सही इलाज की उपेक्षा। उन माँओं का क्या? बच्चों को दूध नहीं पिलातीं, पास नहीं सुलातीं, देखभाल आया करती है, कुछ बड़े होने पर बच्चे हास्टल में, भावनात्मक लगाव शून्य। हाँ, बच्चे इतना समझते हैं कि माँ बाप एटीएम हैं जहाँ से पैसा निकलता है। जॉब लग गई तो उसकी भी जरूरत खत्म। पहले तो हम अच्छे माँ बाप बनें तब बनेगी बात। हम न तो अपनी पीढ़ी को मिल बाँटकर खाना सिखा पा रहे हैं, न परिवार में सहयोग सिखा पा रहे हैं, न उनके बन पा रहे हैं और उन्हें अपना बना पा रहे हैं। कुछ लोगों को यह अभिमान कि वे पैसा खर्च कर रहे हैं और कुछ लोग सारी जिम्मेदारी बच्चों पर ही डाल देते हैं।
मुझे यह तो नहीं पता कि बड़े होने पर किसके बच्चे अपने माँ बाप के साथ कैसा बर्ताव करेंगे लेकिन अपने आसपास इतना दिखाई देता है कि बहुत से माँ बाप अपनी जिम्मेदारी का सही निर्वहन नहीं कर रहे हैं। वे भी कल कहेंगे बच्चों को हमने पालपोस कर बड़ा कर दिया और आज बच्चे हमारी उपेक्षा कर रहे हैं। अरे भाई अभी धरती में एक बीज डालो। हरि इच्छा।खाद पानी मिल गया तो वह पौधा पेड़ बन ही जाएगा। लेकिन एक पौधा जिसकी उचित देखभाल हो तो क्या कहने। पौधा जड़ होता है लेकिन हमारे बच्चे जड़ नहीं हैं। वह हर उस क्रियाकलाप को अपने अवचेतन में बैठा लेते हैं जो हमारे द्वारा नित्यप्रति किया जाता है।
बच्चे अपने प्रति हुए व्यवहार को ही अवचेतन में नहीं रखते अपितु आपके अपने परिवार में अन्य लोगों से कैसे व्यवहार हैं इसे भी अपने अवचेतन में रखते हैं। जो माँ बाप रोज घर में किचकिच करते हों उनके बच्चे बड़े होकर अपने माँ बाप का सम्मान करेंगे इसकी सम्भावना कम ही है। आप अपने भाई बहनों से कटु सम्बन्ध रखें और निज सन्तानों से परस्पर प्रेम व सहयोग चाहें तो कठिन कार्य है।
प्रायः लोग कहानी सुना देते हैं कि एक लड़का था और किसी शहर में डीएम हो गया। उसका बाप उसके ऑफिस पहुँच गया। लोगों ने पूछा तो उसने कह दिया कि नौकर है। तो बाप का पारा गर्म। लोग प्रायः बाप के पक्ष में खड़े होते हैं लेकिन मैं लड़के के पक्ष में हूँ कि लड़के की भी कुछ समस्या रही होगी। मुझे याद है कि मैंने अपने पिता जी को एक दिन चाय बनाकर दी। वह चाय लेकर जमीन पर बिना किसी आसनी के पालथी लगाकर बैठ गए ऐसी उनकी आदत थी और उनके लिए बिल्कुल सामान्य। मैंने उनसे कई बार कहा कि कुर्सी पर बैठेंं या तख्त पर बैठ जाएं। लेकिन मेरा कहना बेअसर। अब मैं जमीन पर उस तरह बैठने का अभ्यस्त नहीं। बहुत क्रोध आया और अंततः मैंने चाय खड़े खड़े टहल कर पी क्योंकि अगर मैं कुर्सी पर बैठ जाता और आप वहाँ पहुँच जाते तो या तो मुझे मूर्ख समझते या अशिष्ट।
मुझे एक अन्य व्यक्ति का किस्सा याद है एक दिन मेरे पास आये और बोले भैया मुझे बहू रोटी सेंककर नहीं देती। यद्यपि मुझे पता था कि बहू ऐसी है नहीं लेकिन फिर भी मैंने अपनी पत्नी से उनकी बहू का पक्ष मालूम करवाया तो पता चला कि घर से लेकर खेत न तो उसका पति कोई सहयोग करता है और न बुड्ढे महाशय। मैंने बुड्ढे को बुलाकर पूछा तो बोले लड़के की नालायकी का हम क्या करें? हमारी अवस्था तो कुछ काम धंधे की रही नहीं कि जानवर चरा लाएं या खेत की रखवाली करें। मुझे कुछ समझ नहीं आया बात आयी गयी हो गई। 
एक दिन बुड्ढे मेरे पास एक समस्या लेकर आए। एक बाग वाले ने उनसे बाग की रखवाली कराई और अब उनकी मजदूरी नहीं दे रहा था। अब मुझे बहुत क्रोध आया लेकिन मैंने उनसे कुछ नहीं कहा सिर्फ इतना पूछा कि मुझे यह बताओ अपना चार बीघे खेत की रखवाली के लिए आपके शरीर में ताकत नहीं है और दूसरे का बारह बीघे का बाग बचाने की ताकत कहाँ से आ गई? बुड्ढे ने न तो मेरी बात का कोई जवाब दिया और न ही वे कोई जवाब देने की स्थिति में थे। 
ऐसा नहीं है कि सारी गलती बड़ों की ही हो बच्चे भी बहुत बार गलत लोगों की संगत में परिस्थितियों वश गलत निकल जाते हैं। हम हर जगह न उनका पीछा कर सकते हैं और न उन्हें बन्धन में रख सकते हैं। 
अन्त में, परिवार सबके सहयोग से चलता है चाहें वे बड़े हों या छोटे। सबको अपने अपने हिस्से के कार्य करते समय दूरगामी परिणाम पर भी सोचना चाहिए।

बुधवार, 11 मई 2022

मुहब्बत का जुनून

नाम कुछ भी रख लें। पाठकों की इच्छा। शीलू, नीलू, सावित्री, सुकन्या कोई फर्क नहीं पड़ता। आज किसी ने बताया कि वह चली गई। चली गई? मतलब। अपने पति और चार बच्चों को छोड़कर चली गई। आश्चर्य है? अभी कुछ दिन पहले रात में जब कुछ लोगों ने उसके घर के बाहर पड़ोस के एक लड़के को देखा था तो मुहल्लेवालों का अंदाजा था कि शायद उसकी बेटी के लिए आया था। शायद उसका उसके साथ कुछ चक्कर था। लेकिन लेखक को लगता है ऐसा कुछ था नहीं?  ऐसा कुछ होता तो अब तक स्पष्ट हो जाता है। गाहे बगाहे लोग उसके बारे में जब तब कहते रहते थे कि अगली चालू है लेकिन लेखक को कभी समझ नहीं आया। लेखक को जब भी मिली भद्रता से मिली। नैन नीचे किये प्रायः पूछती हुई कि गुरू जी बच्चों की फीस बता दो या जमा कर लो। इसके अलावा भी कुछ बातचीत लेकिन ऐसी नहीं कि लेखक चरित्र का आकलन कर सके। 
उसके चार बच्चों में सबसे बड़ी लड़की की उम्र 17 वर्ष, दूसरी लड़की की उम्र 15 वर्ष, तीसरा लड़का उम्र 12 वर्ष और चौथे लड़के की उम्र 10 वर्ष। जिस उम्र में उसके बच्चे प्रेम का पाठ पढ़ना शुरू करने वाले थे उसने पढ़ लिया। अनायास ही अपने बच्चों को जिम्मेदार बना दिया और अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया। पुरुष ने कितनी भी वैज्ञानिक प्रगति क्यों न की हो  लेकिन नारी से सामंजस्य बनाकर रखने का स्थायी फार्मूला वह अब तक नहीं खोज पाया।
अपने पति से इतनी ही असन्तुष्ट थी तो शादी के बाद के बीस वर्ष कैसे निपट गये? यदि सन्तुष्ट थी तो जाने की क्या आवश्यकता? लेकिन वह निकल गई ऋषि विश्वामित्र के आश्रम की मेनका की तरह। मेनका तो आयी थी एक लक्ष्य लेकर इसका तो बस जाने का कुछ लक्ष्य रहा होगा। 
जिस पति से चार बच्चे मिले हों और हमउम्र हो तो यौन सम्बन्ध तो कारण प्रतीत नहीं होते। आर्थिक समस्या तो प्रत्येक परिवार में होती है। संयुक्त परिवार में थी नहीं जो कलह के कारण वह जाती? फिर...
कोई समस्या रही भी हो तो परिवार के प्रति दायित्व का क्या पति के प्रति न सही बच्चों के प्रति तो सोचना चाहिए था। फिर वे बच्चे जिनकी उम्र धीरे धीरे विवाह की हो रही थी और जिन्हें पथ प्रदर्शक की आवश्यकता थी। अच्छा ही हुआ ऐसी माँ यदि बच्चों की पथ प्रदर्शक होगी तो उनका उद्धार ही कर देगी। प्रेम के जाल में फँस जानेवाले भी न जाने किस तरह पत्थर दिल हो जाते हैं कि बस पूछो मत। कुछ भी छोड़ सकते हैं एक मुहब्बत के जुनून के सिवा। माँ, बाप, भाई, बहन, बेटा, बेटी, रिश्तेदार और मित्र की क्या कहें ये अपने व अपने प्रेमी के जीवन की भी परवाह नहीं करते। कहाँ से आती है यह हिम्मत या ढीठता?
लेखक ने अदालत कक्ष के बाहर एक माँ को अपनी बेटी के पैर छूकर मानमनौवल करते हुए और बेटी को निर्लज्जता से प्रेमी के साथ ही जाने की जिद करते हुए देखा है। लेकिन यहाँ तो माँ ही निकल ली। बेटी के बारे में कह सकते हैं कि बीस पचीस की उम्र आगा पीछा कम ही सोचती है लेकिन चालीस पैंतालीस की उम्र तो परिपक्वता की कसौटी है। ऐसे में उसका चले जाना ईश्वर ही समझे या वह स्वयं।
हम सबसे मिलते रहे, जोड़ जोड़ कर हाथ।
किन्तु एक ऐसा मिला, साथ ले गया हाथ।।

शनिवार, 7 मई 2022

सिनेमा दिखउतीं

बियाहिन से गहिरी कुंवारी लगउतीं।
लिपिस्टिक ते होंठन की यारी दिखउतीं।।
न सिर पर दुपट्टा न सीना ढके हैं,
निलज तारिका सी सिनेमा दिखउतीं।।
न अम्मा न बप्पा न बहिनी न भैया,
सिरिफ दोस्तन संग रिश्ता निभउतीं।।
मुहब्बत का फीवर चढ़ा तन व मन पर,
अगर कुछ कहौ आधुनिकता बतउतीं।।
गजब वक्त के रंग अजबइ गजब हैं,
फिसलने को अपने तरक्की जतउतीं।।
तुम्हैं लगि रहो हम गलत कहि रहे हइं।
कहति हम तुम्हैं सबसे जादा सतउतीं।।

अखबार पढ़ूँ

क्यों प्रतिदिन अखबार पढ़ूँ मैं।
वही खबर हर बार पढ़ूँ मैं।।1।।
रोज कहानी वही पुरानी।
बदल रहे किरदार पढ़ूँ मैं।।2।।
चंदो भागी चंदा लटका।
धर्मों की तकरार पढ़ूँ मैं।।3।।
भारी वाहन टूटी सड़कें,
ट्रैफिक है बेजार पढ़ूँ मैं।।4।।
अस्पताल कानून पुलिस या,
शासन है बीमार पढ़ूँ मैं।।5।।
बैंक घोटाले रिश्वतखोरी,
नर नारी व्यभिचार पढ़ूँ मैं।।6।।
मँहगाई के अट्टहास पर,
अभिजन-अत्याचार पढ़ूँ मैं।।7।।
बिजली, पानी, खाद, गैस पर, 
जब तब हाहाकार पढ़ूँ मैं।।8।।