देशकाल के अनुसार भाषा का विकास होता रहता है। एक समय था जब हिन्दी में देशज शब्दों का प्रयोग बहुतायत में होता था। रचनाकार व सामान्य जन अपने अपने अनुसार प्रयोग कर लेते थे व समझ लेते थे। किन्तु अब जब हम वैश्विक इकाई बनने की ओर अग्रसर हैं तो अपेक्षाकृत अधिक शुद्ध एवं मानक हिन्दी शब्दों के प्रयोग के लिए रचनाकारों को तत्पर होना चाहिए। इसके लिए रचनाकार को क्षेत्रीयता से ऊपर उठना होगा। यदि क्षेत्रीय भाषा में लिखते हैं तो अच्छी बात है खूब देशज शब्दों का प्रयोग करते हुए चाहे तो नवीन शब्दों की सर्जना भी कर सकते हैं। किन्तु जब हम अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी का प्रचार-प्रसार चाहते हैं तो हमें उसे इस योग्य बनाना होगा कि वह सम्पूर्ण विश्व में एक सी समझी, लिखी, पढ़ी व बोली जाए। इसलिए जो हिन्दी कबीर, तुलसी, रसखान व भारतेंदु हरिश्चंद्र लिख गए हमें उस हिन्दी से बचना होगा।
अब फेसबुक की अपनी समस्या है। यहाँ प्राइमरी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा प्राप्त लोग रचना कर्म में संलग्न हैं। सबको अपना ज्ञान अधिक और दूसरे का कम प्रतीत होता है। बेकार लोगों से लेकर अत्यधिक व्यस्त लोग यहाँ विद्यमान हैं। अच्छी रचनाओं से लेकर कूड़ा करकट तक झोंका जा रहा है। बिना पढ़े ही लाइक और कमेन्ट झोंके जा रहे हैं। चूतियों की कमेन्ट पाकर जिन्होंने अपने को बहुत बड़ा रचनाकार मान लिया है यदि उन्हें कुछ भी बताने का यत्न करेंगे तो उनके अहं को ठेस पहुंचती है। अतः उन्हें समझाया भी नहीं जा सकता।
एक ही तरीका है कि रचनाकार स्वयं अपने को अध्ययनशील बनाएं और मानक हिन्दी का प्रयोग करें। यदि कोई आलोचना है तो उसे हृदयंगम करें। देशज व बोलचाल के शब्द पढ़ने के लिए ठीक हैं किन्तु जापान से अमेरिका तक के आकाश पर अपनी रचनाओं के प्रसार के लिए हमें अधिक परिष्कृत हिन्दी शब्दों के प्रयोग पर ध्यान देना होगा।
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