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रविवार, 14 मई 2017

माँ


२७/०३/१९९५
बिन्दु से शब्द का अर्थ है सिन्धु सा वर्णों में ॐ से भी यह बढ़कर।
केवल मानव प्राणि नहीं सुर पूजित देवों में देवों से बढ़कर।
नाम लिये अपनेपन का अहसास पवित्र उठे उर कढ़कर ।
सत्य कहूँ कुछ झूठ नहीं नहीं थोड़ी भी बात करूँ बढ़ चढ़कर।।1।।
माँ जननी सुखदायक पोषक प्राण पिलाकर पालन हारी।
जन्म की पीड़ा से काल डरे निज अंग सहे अबला महतारी।
सूखे बिछौने सुला सुत को खुद भीगे में जाग के रात गुजारी।
कौन है त्याग मयी कहो माँ सम कौन द्वितीय है सृष्टि पुजारी।।2।।
माँ फिर फिर माँ कहिये कहो ऐसी मिठास कहाँ तुम पाओगे।
बार हजार करो त्रुटियाँ पर कण्ठ से फेरि किसे मिल पाओगे।
माँ को कभी ठुकराया अरे तब प्रेम का फिर परिवेश न पाओगे।
आँचल माँ का भले सस्ता पर मोल नहीं चुकता कर पाओगे।।3।।
केवल पालन पोषण ही नहीं ज्ञान के बीज हिये बिखराती।
शिक्षित सभ्य बना सुत को इस जीवन का सन्मार्ग बताती।
लायक पुत्र को शेर बना कुल के यश का विस्तार कराती।
किन्तु है खेद जलाकर दीपक नित्य घने तम में रह जाती।।4।।
माँ ममता से भरी गगरी छलकी जिस देह वही समझे।
स्वर्ग बसा चरणाम्बुजों में जिसको पद नेह वही समझे।
लोरियों में सत जीवन की धुन है जिस गेह वही समझे।
माँ छवि दर्शन के सुख का जिसको परिवेश वही समझे।।5।।
व्यष्टि न माँ को कहें तो भली यह एक पवित्र समष्टि का मूल है।
स्वयं रही अबला जननी पर वीर सपूतों की राशि अमूल है।
नाहक नारि प्रताड़ित है जन आज हुआ उसके प्रतिकूल है।
भूलो नहीं अरे माँ के ऋणी तुम सिर्फ़ नहीं यह सृष्टि समूल है।।6।।

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