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बुधवार, 24 मई 2017

गजल- कोई तो हमको चाहिए



मुझसे कह इस वक्त अब कहीं और जाने के लिए।
कंधा किसी का मिल गया सिर को टिकाने के लिए।
वो लोग पत्थर हाथ में लेकर मिलेंगे हर जगह,
घर में नहीं है पेट भर कुछ भी पकाने के लिए।।
सब लोग शादी में कहाँ चेहरा दिखाने आएँगे?
कोई तो हमको चाहिए घर भी बचाने के लिए।।
सब देखसुन खा पी के जब ये जिन्दगी हो घाट पर,
तब आंत में बस चाहिए तन मन झुलाने के लिए।।
यूँ तो सभी के हाथ दिखतीं एक जैसी लाइनें।
फिर भी तो अन्तर खोजिये मन को मनाने के लिए।।
नववस्त्र भूषण भूषिता निज मन मुकुर की अप्सरा।
सबको कहाँ मिल पाएगी उर से लगाने के लिए।।
जब पल्लवों ने साथ छोड़ा टहनियाँ नीरस हुईं।
कोई तो ही जाएगा आरा चलाने के लिए।।
व्याकुल नहीं मन में 'विमल' है देखकर जग का चरित।
सारे मशाले चाहिए भोजन बनाने के लिए।।

रविवार, 21 मई 2017

मन्त्रियों की छाँव



अक्टूबर २००५
वार्त्तायन में प्रकाशित


आज फिर से बिक गयी पायल किसी के पाँव की।
जब से मधुशाला खुली रौनक बढ़ी है गाँव की।
रो-कलपकर शान्त आखिर हो गया बच्चा विकल।
दूध लाता कौन बप्पा को पड़ी थी दाँव की।
वो दरोगा आज फिर कट्टा पकड़कर रह गया।
फैक्ट्री को शह मिली थी मन्त्रियों की छाँव की।
खोदकर गड्ढे सड़क पर काम तो अच्छा किया।
पार जाने के लिये इन्कम बढ़ेगी नाव की।
द्वार से मैंने भिखारी को भगाया आज फिर।
किसलिये परवाह करता उसकी काँव काँव की।

मंगलवार, 16 मई 2017

नया पाठ

16/05/2017
मुहब्बत भरी शायरी लिख रहा हूँ।
स्व जीवन की नव डायरी लिख रहा हूँ।
जो पन्ने पुराने लगे ही रहेंगे,
नया हुस्न कारीगरी लिख रहा हूँ।।1।।
नया पाठ नामे गुलब्बो बढ़ाया।
बुढ़ापे से यौवन में फिर लौट आया।
खुदा की कसम राम के नाम से ली,
मरुथल में सागर से मैं खेल पाया।।2।।
गये जेठ आषाढ़ आया हो जैसे।
प्रकृति ने फिर प्राण पाया हो जैसे।
तड़प दिल में ऐसी कि बिच्छू डसा हो,
कहीं कोबरा काट खाया हो जैसे।।3।।
©विमल कुमार शुक्ल'विमल'

रविवार, 14 मई 2017

माँ


२७/०३/१९९५
बिन्दु से शब्द का अर्थ है सिन्धु सा वर्णों में ॐ से भी यह बढ़कर।
केवल मानव प्राणि नहीं सुर पूजित देवों में देवों से बढ़कर।
नाम लिये अपनेपन का अहसास पवित्र उठे उर कढ़कर ।
सत्य कहूँ कुछ झूठ नहीं नहीं थोड़ी भी बात करूँ बढ़ चढ़कर।।1।।
माँ जननी सुखदायक पोषक प्राण पिलाकर पालन हारी।
जन्म की पीड़ा से काल डरे निज अंग सहे अबला महतारी।
सूखे बिछौने सुला सुत को खुद भीगे में जाग के रात गुजारी।
कौन है त्याग मयी कहो माँ सम कौन द्वितीय है सृष्टि पुजारी।।2।।
माँ फिर फिर माँ कहिये कहो ऐसी मिठास कहाँ तुम पाओगे।
बार हजार करो त्रुटियाँ पर कण्ठ से फेरि किसे मिल पाओगे।
माँ को कभी ठुकराया अरे तब प्रेम का फिर परिवेश न पाओगे।
आँचल माँ का भले सस्ता पर मोल नहीं चुकता कर पाओगे।।3।।
केवल पालन पोषण ही नहीं ज्ञान के बीज हिये बिखराती।
शिक्षित सभ्य बना सुत को इस जीवन का सन्मार्ग बताती।
लायक पुत्र को शेर बना कुल के यश का विस्तार कराती।
किन्तु है खेद जलाकर दीपक नित्य घने तम में रह जाती।।4।।
माँ ममता से भरी गगरी छलकी जिस देह वही समझे।
स्वर्ग बसा चरणाम्बुजों में जिसको पद नेह वही समझे।
लोरियों में सत जीवन की धुन है जिस गेह वही समझे।
माँ छवि दर्शन के सुख का जिसको परिवेश वही समझे।।5।।
व्यष्टि न माँ को कहें तो भली यह एक पवित्र समष्टि का मूल है।
स्वयं रही अबला जननी पर वीर सपूतों की राशि अमूल है।
नाहक नारि प्रताड़ित है जन आज हुआ उसके प्रतिकूल है।
भूलो नहीं अरे माँ के ऋणी तुम सिर्फ़ नहीं यह सृष्टि समूल है।।6।।