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रविवार, 21 मई 2017

मन्त्रियों की छाँव



अक्टूबर २००५
वार्त्तायन में प्रकाशित


आज फिर से बिक गयी पायल किसी के पाँव की।
जब से मधुशाला खुली रौनक बढ़ी है गाँव की।
रो-कलपकर शान्त आखिर हो गया बच्चा विकल।
दूध लाता कौन बप्पा को पड़ी थी दाँव की।
वो दरोगा आज फिर कट्टा पकड़कर रह गया।
फैक्ट्री को शह मिली थी मन्त्रियों की छाँव की।
खोदकर गड्ढे सड़क पर काम तो अच्छा किया।
पार जाने के लिये इन्कम बढ़ेगी नाव की।
द्वार से मैंने भिखारी को भगाया आज फिर।
किसलिये परवाह करता उसकी काँव काँव की।

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