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बुधवार, 13 अप्रैल 2022

बड़े

एक दिन हम अपने घर में हो गए सबसे बड़े।
मेज पर थीं कुर्सियां और कुर्सियों पर हम खड़े।
सच यही है हम बड़े हों यह कभी सोचा नहीं,
नाक मुँह डूबा रहे और हम दही में हों पड़े।
जो बड़े थे गोल-सीधे और लम्बाई लिये,
सब गये चीरे हसीनाओं के बेड में थे जड़े।
इसलिए भी हम बड़े होना नहीं हैं चाहते,
उम्र में लगते ससुर भौजाई कहने को अड़े।
गाँव भर की औरतें सब फाड़ देतीं चित्त को,
जेठ कहतीं बुड्ढियाँ भी बाल जिनके सब झड़े।
हम बड़े थे हर तरह से हमको ही डाँटा गया,
शेष दुलराये गए थे माँ की गोदी में गड़े।

2 टिप्‍पणियां:

  1. 😃😃😃क्या बात है भाई विमल जी।अब बड़े होना इतना बड़ा गुनाह तो नहीं!😃😃!!और जैसे दूसरे छोटा होने की कवायद में जुटे हैं आप भी जुटे रहिये!रोचक रचना।हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई 🙏

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    1. धन्यवाद बहन, जब कोई छोटा होगा तो दूसरा बड़ा भी होगा यह नियम है, रचना तो बस मन.की मौज है। बड़े होने का तात्पर्य जिम्मेदार व सम्मानित होना भी है।

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