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बुधवार, 10 मार्च 2021

सबसे बड़ा रुपइया-1

सबसे बड़ा रुपइया 
भाग―1

लोग मुझसे पूछते हैं कि मेरे लिए रुपया-पैसा क्या है। मेरा एक ही उत्तर होता है कि पैसा जीवन में चीनी-नमक है। न तो केवल चीनी-नमक से पेट भर सकते हैं। और न ही बिना चीनी-नमक के किसी पकवान की आशा की जा सकती है। हम मिडिल क्लास वाले लोग यह देखते-सुनते हुए बड़े होते हैं कि जिसके पास पैसा है वह या तो बहुत पढ़-लिखकर कोई बड़ी नौकरी कर रहा है या दो नम्बर का काम। प्रायः एक बात मान ली जाती है कि जो ग़रीब है वह ईमानदार है। प्रेमचंद के जूते फटे हैं तो वह ईमानदार हैं। या'नी अंगूर खट्टे हैं। दरअसल इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है मिडिल क्लास व्यक्ति के पास अथाह धन आने का सबसे सरल एक ही मार्ग है और वह है येन केन प्रकारेण अपने ईमान को बेच देना। क्योंकि इसके अलावा जितने भी ईमानदारी के मार्ग हैं उनपर चलने का न तो मार्गदर्शन है और न ही पूँजी। ऊपर से बिना मार्गदर्शन के चले और असफल हुए तो समाज है; चाचा, चाची, ताऊ, बुआ, मौसी, मौसा, मामा, मामी, फलाँ भइया, फलाँ बहिन चार लोग चार तरह की बात कहेंगे। ऐसे में या तो ईमानदारी में भाग्य चमके या फिर बेईमानी की जाए। प्रायः लोग बेईमानी का रास्ता चुन लेते हैं। आसान लगता है। पैसा हमारे आस-पास समाज में इतना सब-कुछ नियंत्रित करता है कि हम जान भी नहीं पाते। हमारा अवचेतन पैसे के आधार पर ऐसे-ऐसे व्यवहार करता है कि प्रायः हमारी चेतना को भान भी नहीं होता है कि हम ऐसा किसलिए कर रहे हैं। मेरा प्रयास है कि मैं अपने आस पास की उन सब समाजिक परिस्थितियों के बारे में लिखूँ जिनके ड्राइविंग कोर में कहीं न कहीं रुपया-पैसा है पर उनपर कोई दूसरा रंग चढ़ा दिया जाता है। ऐसा ही पहला उदहारण है:

1. पैसा और पितृसत्ता

मेरी एक दोस्त ने एक दिन दिलचस्प सवाल पूछा कि औरतों के कपड़ो में जेब क्यों नहीं होती। तो मैंने हास-परिहास में कह दिया कि जिनको पैसे कमाकर घर नहीं लाना उन्हें जेब की क्या ज़रूरत। आज वीमेंस डे है (शायद जब आप इसे पढ़ें तब ना रहे)। सुबह होते ही मेरी एक मित्र ने कहा कि मैंने उसे वीमेंस डे विश नहीं किया। मैंने कहा मैं चाहता हूँ तुम्हारे हाथ पर ख़ुद के चार पैसे आएँ इसलिए यह सब दिखावा बन्द करो और पढ़ो जाकर। अव्वल तो शोषितों को क्या करना चाहिए इस पर हम जैसे शोषक ज्ञान न पेलें तो ही सही है। पर कोई युद्ध तभी जीता जाता है जब एक विभीषण अपनी तरफ़ हो। महिला सशक्तीकरण की बात तब तक नहीं की जा सकती जब तक महिलाओं के पास आर्थिक स्वतंत्रता न हो। मैं अपनी बहन, अपनी दोस्तों, और राह चलते मिलने वाली हर महिला से यही कहता हूँ कि यदि आप आर्थिक स्वतंत्रता नहीं पा सकतीं तो भूल जाइए कि आप अपने निजी निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हैं। और यही बात पुरुषों पर भी लागू होती है। ध्यान रखिए मैं नारीवाद की बात नहीं कर रहा। मैं स्त्री-विमर्श के उस छोटे से हिस्से की बात कर रहा हूँ जिसे महिला सशक्तीकरण कहते हैं। हो सकता हो यह विचार कुछ हद तक मेरे पूर्वाग्रह हों पर पूर्णतयः ऐसा नहीं है। मैं ऐसा नहीं कह रहा कि आर्थिक स्वतंत्रता पूरी तरह से महिला सशक्तीकरण करेगी। पर इससे मानसिकता बदलेगी, धीरे-धीरे ही सही। और रही बात कॉरपोरेट या जॉब कल्चर में फैले पितृसत्तात्मक रवैये की तो इसके लिए फर्स्ट वर्ल्ड फेमिनिस्ट काम करें। वे कर रही हैं। उनकी आवाज़ ज़्यादा बुलन्द है। सोशल मीडिया से केवल फर्स्ट वर्ल्ड की समस्याएँ सुलझ रही हैं। मैं तो उस मैजोरिटी की बात कर रहा हूँ जो भारत की कुल महिलाओं का 96-97% हैं। जिनके पास कोई ऐसी ढंग की नौकरी या व्यापार नहीं है कि उन्हें किसी पुरुष पर निर्भर रहना पड़े। 

यदि महिला सशक्तीकरण की ओर कोई सफलता भरा पहला कदम है तो वह आर्थिक स्वतंत्रता का है। आपके पिता, भाई, बॉयफ्रेंड, पति, पुत्र आपको चाहे जितना प्यार करें जब तक आपके जीवनयापन और आय का स्रोत ये लोग हैं आपके जीवन में एक ऐसा समय अवश्य आएगा जब आपको आर्थिक परतंत्रता का वास्तविक परिणाम दिखेगा। आपको जीवन पर्यंत ऐसा अनुभव न हो इसके लिए या तो आप बहुत भाग्यशाली हों, या मूर्ख, या फिर शून्य आत्मसम्मान से भरे हों। एक और परिस्थिति है आप इमोशनल फूल हों। आप अपने चारों ओर नज़र उठाकर देखिए कितनी ऐसी महिलाएँ हैं जो अपने पिता, पति, पुत्र के न होने की स्थिति में भी उतनी ही आर्थिक रूप से सक्षम हैं। जबकि लगभग हर पुरुष अपने पिता, पत्नी, या पुत्र के बिना आर्थिक रूप से सक्षम है। यह भावना समाज में गहरे से है कि स्त्री पहले अपने पिता, फिर पति, और फिर पुत्र के संरक्षण में रहती है। यह भावना बदलेगी तो इसके ज़मीनी परिणाम दिखेंगे। देखिए दो बातें आपको समझनी होंगी, पहली तो यह कि पत्नी के हाथ में महीने भर का वेतन रख देना उसे आर्थिक रूप से सक्षम नहीं बनाता। दूसरी बात यह कि आर्थिक रूप से सक्षमता के कई स्तर हैं जैसे किसी मेट्रोसिटी में 20-25 हज़ार महीने कमा रही महिला/पुरुष आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं। जो भी लड़कियाँ 13-14 से लेकर उम्र के उस पड़ाव पर हैं जहाँ से वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन सकती हैं उनसे बस इतना कहूँगा कि लड़िए-पढ़िए-कमाइए। शिकायत करने से कुछ नहीं होगा। यदि मैं आय का स्रोत हूँ तो मैं अपनी मेहनत की कमाई पर आपको[/किसी को भी] स्वतंत्रता नहीं दे सकता। आपको मेरी मर्ज़ी पर सब कुछ करना होगा वरना आप खाने, पहनने, रहने की व्यवस्था स्वयं कीजिए। आपको स्वतंत्रता चाहिए तो आत्मनिर्भर बनिए। यही प्रधानमंत्री जी का कहना है।

एक छोटी सी बात यह है कि आर्थिक स्वतंत्रता महिलाओं ही नहीं पुरुषों के लिए भी आवश्यक है। परन्तु महिलाओं की तुलना में पुरुष अधिक आर्थिक स्वतन्त्र हैं तथा पितृसत्तात्मक सोच के चलते पुरुषों को निजी निर्णय लेने के लिए घर के अंदर उतना संघर्ष नहीं करना पड़ता। जैसे बेटे से घर का काम न कराना बेटियों से कराना, पत्नी के गहने बेच देना, या फिर पैतृक संपत्ति पर बेटों का ही अधिकार होना इत्यादि। लम्बे समय और संघर्ष के बाद सुप्रीम कोर्ट ने बेटियों के अधिकार में भी सम्पत्ति का आना स्वीकारा। किन्तु आज भी बहुत कम परिवार ऐसे हैं जो सम्पत्ति में बेटियों को हिस्सा देते हैं। इसी सोच के चलते बेटियों को एक लंबे समय तक पढ़ाई-लिखाई से दूर रखा गया क्योंकि पढ़ा-लिखा व्यक्ति अगर अच्छे से पढ़ गया तो एक न एक दिन जी हुज़ूरी करना बंद कर देगा। इसीलिए महिलाओं को नौकरी नहीं करने दी गयी और घर में उनके सर्टिफिकेट्स फाड़ दिए गए कि ख़ुद का पैसा होगा तो "उनकी जूती (बीवी/बहू) उनके पैर से बाहर निकल जाएगी और पगड़ी सिर से।" वैसे इन सब चीजों के प्रसार में महिलाएँ स्वयं साथ देती हैं। वे कहती हैं "हमने भी सहा है तुम भी सहो।" 

[धीरे-धीरे एक ऐसा वर्ग डेवेलप हुआ है जो रूढ़िवादी तो है ही बस अपराधबोध से बचने के लिए उदारवादी दिखने के प्रयास में रहता है। वह 70-80 के दशक के किसी अख़बार से पति-पत्नी का कोई चुटकुला उठाकर लाएगा और कुतर्क करेगा कि कैसे पत्नी के हाथ मे सब शक्ति है। उसके लिए मिर्ज़ापुर 2 वेब सीरीज़ का एक सीन बताना चाहूँगा। मुन्ना भैया के पिताजी कालीन भैया एक मीटिंग बुलाते हैं जिसमें मुन्ना भैया एक ठेकेदार को ठोक देते हैं और बहुत ख़ुश होते हैं कि आज पिता जी के कट्टों के व्यापार में हमारा निर्णय भी माना जाने लगा। फिर एक दिन कालीन भैया समझाते हैं कि मुन्ना ट्रिगर तुम दबाए लेकिन फ़ैसला हमारा था।]

चलिए ये एक उदाहरण ही बहुत लंबा हो गया अगले भाग में और भी उदाहरण आएँगे। चूंकि आर्थिक परतन्त्र औरतों का प्रतिशत आर्थिक परतन्त्र आदमियों से अधिक है इसलिए तमाम उदहारण जो आएँगे वे महिलाओं पर केंद्रित हो सकते हैं। बाक़ी आपको भी ऐसा लगता हो कि कुछ सामाजिक घटना ऐसी हो जिसमें पैसा बड़ा कारक हो लेकिन उसे कोई और चोला पहना दिया गया हो तो ज़रूर बताएँ। प्रयास रहेगा कि अगले भाग में उन पर भी लिखा जाए।


―सिद्धार्थ शुक्ल पुत्र विमल कुमार शुक्ल

9 टिप्‍पणियां:

  1. सच सारा खेल पैसे की आजादी का
    जिसकी जेब में पैसा उसकी बात में दम

    बहुत सटीक सामयिक लेख

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  2. बहुत सुन्दर।
    शिव त्रयोदशी की बहुत-बहुत बधाई हो।

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    1. हार्दिक आभार बड़े भाई, आपको भी शिव त्रयोदशी की बधाई।

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  3. आर्थिक रूप से जब तक स्त्री सक्षम नहीं तब तक सशक्त नहीं हो सकती . बढ़िया लेख .

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    1. हार्दिक आभार बहन दूसरा भाग भी पढ़ें और बेटे को आशीर्वाद दें।

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  4. सही बात है महिला सशक्तिकरण तभी सम्भव है जब जब महिलाएं आर्थिक सक्षम हों।
    बहुत सुन्दर सार्थक लेख।

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    1. हार्दिक आभार बहन, दूसरा भाग भी पढ़ें और बेटे को आशीर्वाद दें।

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