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शुक्रवार, 25 मई 2018

दो दो जेठ



4/05/2018
हम तो एक से ही परेशान थे।
अब तो दो दो जेठ आ गये।
बादल कहाँ हैं? घूँघट कर लूँ।
फिर पिया की याद के झोंके सता गये।।
उसके पास होने का अहसास,
तपती दोपहर जिया जुड़ा जाता है।
जेठ या देवर, चिन्ता नहीं होती,
सारा रंज और भय उड़ा जाता है।।
घर बड़ा फिर मैं अकेला खोज हारा,
बिन पिया के मिल न पाया है सहारा।
आ भी जा अब मेघ के सँग या पवन सँग,
तृषित आँगन, तृषित यौवन तृषित अँग-अँग।।
 


कृपया पोस्ट पर कमेन्ट करके अवश्य प्रोत्साहित करें|

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (27-05-2018) को "बदन जलाता घाम" (चर्चा अंक-2983) (चर्चा अंक-2969) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    मातृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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