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मंगलवार, 20 जनवरी 2015

शास्त्री जी


पहली बार उसे मैंने अपने घर के पास के एक मन्दिर के चबूतरे की फर्श पर बैठकर गुनगुनी धूप का आनन्द लेते हुए देखा था। उम्र कोई 30-35 वर्ष रही होगी। सिर के बाल अभी काले थे। चेहरे पर काली-घनी दाढ़ी मूँछ साधारण ढंग से व्यवस्थित की गयी थी। सफेद कुर्ता पायजामा पहने हुए मस्तक पर श्वेत चन्दन लगाये किसी भद्र पुरूष  की सी आकृति थी। उस दिन मैंने उस पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। हाँ इतना जरूर  ध्यानदिया कि वह मेरे लिए बिल्कुल अपरिचित और इस मन्दिर प्रांगण में बिल्कुल नया था।
मन्दिर घर से पास में था। मैं प्रायः मन्दिर पहुंच जाया करता था। पूजा पाठ करने कम उछल कूद करने ज्यादा।मन्दिर का आँगन पर्याप्त विस्तृत था। मुहल्ले के सभी बच्चे प्रायः बिना किसी भेदभाव शंकारहित होकर अपने खेल-कूद के लिए इसे ही प्रयोग करते थे। मैंने उस दिन के पश्चात उस आदमी को जब-तब अपने पोथी-पत्रे कागज कलम के साथ उलझा हुआ पाया। वह किसी से ज्यादा बातचीत नहीं करता था। बच्चों से तो बिल्कुल नहीं। हाँ बच्चों की धमाचौकड़ी में उसे कोई अरुचि रही हो ऐसा कोई वाकया पेश नहीं आया।
धीरे-धीरे मुझे ज्ञात हुआ कि उसे शास्त्री जी कहते हैं। मन्दिर के प्रबन्धक की अनुमति से यह कुछ दिन यहाँ रहेगा। बहुत पहुंचा हुआ ज्योतिषी और तांत्रिक है। उसका नाम किसी ने नहीं पूँछा। कुल खानदान किसी ने नहीं पूँछा। जाति में किसी की दिलचस्पी नहीं। विशेषकर मुझे तो यह वृत्तान्त लिखते समय तक कुछ नहीं पता। क्योंकि अधिक कोई कुछ बता नहीं सका। हाँ इतना जरुर है कि उस आदमी को देखने और समझने के पश्चात मेरे बाल-मस्तिष्क में पंडितों और तांत्रिकों के प्रति जो परम्परागत धारणा थी वह खंडित हो गयी। पण्डित मोटा जनेऊ पहनते हैं, तिलक लगाते हैं, पूजापाठ में व्यस्त रहते हैं, हाथ देखते हैं, भविष्य बाँचते हैं या तांत्रिक काले कपड़े पहनते हैं, हाथ में  मोरपंख की झाडू रखते हैं, लोबान की धूनी देते हैं अस्थियों की माला पहनते हैं, भूत-प्रेतों पर नियन्त्रण रखते हैं, टोना टोटका करते हैं। ऐसा कुछ भी उस आदमी में नहीं था। इसके विपरीत वह कुर्त्ता-पायजामा और शर्ट -पैंट पहनता था। गले में रुद्राक्ष के साथ सोने की मोटी चैन और हाथ में कंगन पहनता था। पूजा पाठ उस मन्दिर में करते उसे कभी देखा नहीं था। हाँ वह साफ़-सुथरा बहुत रहता था। लोबान अगरबत्ती की जगह विल्स की सिगरेट सुलगाता था और औसत से अधिक कश खींचता था। अलबत्ता शराब और गांजे के सेवन के बारे में नहीं देखा सुना। आँखों का साइज बहुत बड़ा या छोटा था पर उनमें लाल डोरे अवश्य दिखाई देते थे। मन्दिर में महिलाओं का आना-जाना अधिक संख्या में होता था फिर भी किसी महिला से उसने कोई वार्त्तालापया इशारेबाजी की हो सुनने में नहीं आता।
वह अविवाहित था अतः बच्चों का कोई प्रश्न नहीं। उसका कोई निकट सम्बन्धी आज तक सामने नहीं आया।
यद्यपि यह ज्ञात हुआ था कि वह ज्योतिषी और तांत्रिक है किन्तु उसके किसी ग्राहक को मैंने उसके आसपास नहीं देखा था। हाँ उसके पास एक लम्बा काशी का पञ्चांग रहता था। कुछ कर्मकाण्ड की पुस्तकेंरहतीं थीं। डायरी और पेन के अलावा उसके झोले में क्या रहता था? इसकी जिज्ञासा आज भी मन में है। मेरा बाल मन बार बार यह सोचता था कि यह कहीं कोई जासूस या अपराधी वृत्ति तो नहीं, किन्तु ऐसा कुछ नहीं था। बच्चों में यह अफवाह थी कि यह व्यक्ति अपने चारों ओर ऐसा अदृश्य कवच रखता था कि कोई साधारण मनुष्य उसके पास नहीं जाता था। हम बच्चों की बिसात ही क्या?
वर्षों बाद पता चला कि वह बहुत बड़ा शिकारी था। छोटी मछलियाँ पकड़ना उसकी आदत में शुमार नहीं था। वह बड़ी बड़ी मछलियों का शिकार करता था। कहा जाता है कि जनपद के कम से कम पाँच विधायकों की जीत में उस आदमी के पूजापाठ का हाथ था। एक मंत्री जी को पुत्र की प्राप्ति में भी उस आदमी का हाथ समझा जाता है। इस सबके बदले में उसने दसियों लाख की फ़ीस वसूली थी।
उसके ग्राहक उसे अपनी गोपनीय बैठकों में बुलाते थे। वहीं डील करते थे। उसके द्वारा प्रदत्त सर्विस में कुण्डली बनाने से कुण्डली मिटाने तक का पूजापाठ शामिल था। कहते हैं वह ऐसे अचूक मन्त्र उनका व्यवहार जानता था कि वह एक छोटी सी कोठरी में साधनारत रहकर संसार के किसी भी हिस्से में उलट-पुलट कर सकता था। उसके मन्त्र बैलेट बॉक्स में बैलेट्स की गिनती बदल सकते थे, मुकदमा जिता सकते थे, शादी-विवाह, नौकरी, व्यवसाय,शिक्षा जमीन-जायदाद किसी भी प्रकार की समस्या से निजात दिला सकते थे। किन्तु मुझे इन दावों की सच्चाई प्रमाणित करने वाला आज तक नहीं मिला। क्योंकि आम आदमी उसकी फ़ीस नहीं दे सकता था। धनाढ्यों से कभी पुष्टि नहीं हुई। वैसे भी संगमरमर की दीवारों से छनकर सच्चाई नहीं सिर्फ अफवाहें आती हैं।
सत्य क्या है? कोई नहीं जानता? उस आदमी को कोई 4-5 वर्ष तक उस मन्दिर में रहते हुए देखा। फिर वह भी कहीं चला गया और मुझे भी विधिवश अपना कस्बाछोड़कर गाँव में रहना पड़ा। तब से कोई 17-18 साल बीत गये। कुछ महीने पहले वह मुझे गाँव में ही एक परिचित की दूकान पर दिखाई पड़ा। कुछ नहीं बदला था। अब भी भक सफेद कपड़े पहने हुए वह दिव्यता की मूर्ति प्रतीत होता था, किन्तु बातचीत करने पर पता चला अब बीमार रहने लगा है। डॉक्टर कहते हैं कि उसे फेफड़ों का कैंसर है। पहले वाला तन्त्र मन्त्र का कम उसने छोड़ दिया है। उसके कुछ पुराने ग्राहकहैं जो उस पर श्रद्धा रखते हैं और उसे कभी कभार कुछ दान दक्षिणा कर देते हैं किन्तु पहले वाली बात नहीं। उसे खाँसी बनी रहती है दम भी फूलता है। मगर सिगरेट अब भी उसके होठों की शोभा है। मुझे उस पर तरस रहा था मैंने कहा शास्त्री जी जीवन की अंतिम बेला है भगवान का नाम लो। आराम करो। उसने कहा,"अभी समय नहीं आया है। मेरे मन्त्रों में वह शक्ति है कि मैं यमराज को चैलेन्ज क्र सकता हूँ। और अपना जीवनकाल आगे बढ़ा सकता हूँ।" मुझे पहली बार उस व्यक्ति के सन्दर्भ में किये जा रहे दावों पर कुछ कुछ विश्वास होने लगा था। आखिर बात ही उसने ऐसे विश्वासपूर्ण ढंग से कही थी। यद्यपि मुझे लग रहा था कि युवाओं जैसे उसके कथन का साथ उसका शरीर अधिक समय टीक नहीं दे सकता।
कुछ सप्ताह पूर्व ही मैं गाँव के मन्दिर में देवी जी के दर्शन के लिए गया तो पता चला शास्त्री जी यहीं मन्दिर के पीछे एक कोठरी में रहते हैं। मैंने सोचा चलो देख लेते हैं कैसी तबियत है। मैंने उस कोठरी में जाकर देखा कि अर्द्ध-बेहोशी की हालत में शास्त्री जी जमीन पर पड़े हैं। शरीर की त्वचा चटकने लगी है। दरारों से रक्त बहना ही चाहता है किन्तु बहकर बाहर नहीं रहा है। शरीर पर चींटे रेंग रहे हैं। शास्त्री जी की सामर्थ्य नहीं है उन्हें हटा सकें। किसी तरह शास्त्री जी को हिलाडुलाकर जगाया। हाल चाल पूछा और एकबार फिर कहा,"शास्त्री जी अब तो भगवान का नाम लो और अपना कल्याण सोचो।" शास्त्री जी ने फिर वही जवाब दिया कि अभी समय नहीं आया है। वह मृत्यु को परास्त कर सकते हैं। मुझे एक कहानी याद रही थी जिसमें लेखक ने लिखा था कि लम्बे कारावास का अपराधी जब जेल से उसकी मुक्ति का समय आता है तो वह जेल से बाहर नहीं जाना चाहता। मुझे लगा यह वही कैदी है।
कैसी जीने की ललक है? एक सप्ताह पूर्व सूचना मिली कि शास्त्री जी नहीं रहे। कोई पीछे रोने वाला आगे बढ़कर कोई उनकी मदद करने वाला। ज्ञात हुआ कि मृत्यु को जितने का। मन्त्र उन्हें भी नहीं आता था। किन्तु भगवान का नाम लेना तो आना चाहिए शायद इसी से कुकर्मों की बेड़ियाँ कट जायें। आज तो मुझे इस पर भी कठिनाई है कि मैं उन्हें जी कहकर सम्बोधित करूं किन्तु मैंने सीखा है कि मरने वाले की निन्दा नहीं करते। अगर कुछ ऐसा हुआ है। तो ईश्वर मुझे क्षमा करे।

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