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बुधवार, 2 जुलाई 2014

ऐसा भी होता है?

यह कोई कहानी नहीं है। एक भुक्तभोगी द्वारा लेखक को सुनाई गयी वास्तविक घटना है। इसमें सिर्फ भुक्तभोगी का नाम काल्पनिक है  शेष की सत्यता का लेखक भुक्तभोगी के कथनानुसार विश्वास करता है। क्या ऐसा भी हो सकता है? जब रेप और दुष्कर्म के मामलों में इतना हो हल्ला हो रहा हो तब समाज के किसी कोने में कुछ ऐसा भी हो सकता है जो विधि निर्माताओं के लिए विचारणीय हो सकता है।

बात तब की है जब मैं युवराज दत्त महाविद्यालय खीरी में B.Ed का प्रशिक्षणप्राप्त कर रहा था। अक्टूबर 2000 से फरवरी 2001 के मध्य, हम कई लड़के एक बड़े कमरे में अपना ठिकाना बनाये हुए थे। उन लडकों में एक लड़का था जिसका नाम हम विजय मान लेते हैं। खीरी जिले के तराई क्षेत्र से सम्बन्धित किसी जनजाति से सम्बद्ध यह लड़का शारदा नगर  के आसपास कहीं से आता था वह भी हम लोगों के साथ रहा।

एक दिन मुझे किसी लड़के ने कहा विजय से पूछना क्या वह लखनऊ चलेगा? मैं समझ गया अवश्य विजय इस प्रश्न से चिढ़ता होगा। मैंने उससे कभी यह प्रश्न नहीं किया होता यदि मुझे उसके साथ रहने और इस प्रश्न को पूछने का अवसर न मिला होता।

हुआ यूँ कि कॉलेज में 4 दिन की छुट्टी हुई। शनिवार का दिन था, सभी लड़के अपने अपने घर चले गये। मैं भी बस स्टैंड पर आया पिहानी के लिए आखिरी बस छूट चुकी थी। अतः मैं कमरे पर वापस आया और रविवार को वापसी का फैसला किया। मैंने देखा विजय भी कमरे पर मौजूद है वह भी घर नहीं गया। अस्तु उस रात कमरे पर हम दो ही थे।

हम दोनों ने अपने अपने बिस्तर लगाये जिनके बीच 5 चारपाइयां खाली पड़ीं थीं। मेरे उसके बीच अब तक कुछ जान पहचान बढ़ गयी थी तथा प्रेमभाव विकसित हो चुका था। अतः मैंने उससे कहा कि यार उतनी दूर बिस्तर कहाँ लगाया। पास की किसी चारपाई पर बिछा लो। बिना किसी अधिक बातचीत के वह अपना बिस्तर पास की चारपाई पर ले आया। थोड़ी देर इधर उधर की बातें होती रहीं। फिर मुझे अचानक ख्याल आया कि लगे हाथों उसके लखनऊ चलने वाले प्रश्न की भी चर्चा कर ली जाये। विश्वास करिये इस सन्दर्भ में मुझे उससे प्रश्न करने के लिए बड़ी हिम्मत जुटानी पड़ी।

मैंने उससे कहा कि विजय भाई नाराज न हो तो एक बात पूंछूं। उसने हँसते हुए कहा,"दद्दा नाराज होने की क्या बात है। एक के बजाय चार पूंछो।" न उसने यह कल्पना की होगी कि मैं क्या पूंछने वाला हूँ न मैंने कल्पना की थी कि मुझे क्या जबाव मिलेगा। मैंने कहा नही सिर्फ एक ही पूंछ्नी है। उसने कहा पूँछो दद्दा। मैंने कहा, "यहाँ कुछ दिन पहले कुछ लड़के कह रहे थे कि विजय से पूँछना कि क्या लखनऊ चलोगे।" अरे! मेरी बात भी पूरी नहीं हो पाई थी। मुस्कुराते हुए से अचानक उसका चेहरा आक्रोश और दुःख से भर गया। उसकी आँखों में आंसू और क्रोध देखकर मुझे अति आश्चर्य हुआ और ग्लानि भी। किन्तु तीर कमान से निकल कर वापस आने वाला तो था नहीं।

थोड़ी देर बाद जब विजय ने अपने आपको संयत किया तो उसने मुझसे कहा, "दद्दायह बात तुमने पूँछी थी अगर किसी और ने पूँछी होती तो पिट जाता।

मैंने कहा' "अगर ऐसा है तो भइया मुझे माफ़ करना। मेरे दिमाग में था कि कोई अटपटी बात जरूर  है तभी मैंने कभी पहले नहीं पूँछा। यदि मुझे मालूम होता कि लखनऊ के नाम पर तुम इतना परेशान होओगे तो बिलकुल नहीं पूँछता। फिर भी ऐसा क्या है जो तुम रोने लगे।"

उसने कहा, "दद्दा कुछ पूछो मत।"

फिर धीरे धीरे उसने मुझे बताना शुरू किया। जो उसने बताया था काफी कुछ दिमाग से फिसल गया फिर भी जो मुझे याद रहा वह इस प्रकार है।

1995-96 की बात है उस लड़के ने शारदानगर से इन्टर मीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात लखनऊ में कहीं B.Sc. में एडमिशन लिया और गोमती नगर में किराये पर कमरा लेकर रहने लगा। प्रतिदिन साइकिल से कालेज से कमरा और कमरे से कालेज जाना आना अपनी पढाई लिखाई करना बस यही उसकी दिनचर्या में शामिल था इससे ज्यादा मतलब नहीं। गरीब घर का जन-जातीय सदस्य होने वह  कुछ संकोची भी था तथा उसकी वेशभूषा व शारीरिक बन गठाव भी आम शहरी से अलग था।

एक दिन 3 बजे के आसपास कालेज से कमरे पर जाते हुए एक लड़की जिसकी उम्र कोई 19-20 की रही होगी उसकी साइकिल के सामने आयी और इससे पहले वह लड़का कुछ समझता लड़की साइकिल से टकराई या ऐसा लगा कि वह टकराई, ठीक से उस लड़के को अनुभव नहीं हो पाया सड़क पर बैठ कर अपना पाँव पकड़कर जोर जोर से चिल्लाने लगी। "हाय! मेरा पैर। नालायक देखकर नहीं चलते। कितनी जोर से टक्कर मार दी।" और न जाने क्या क्या? वहाँ तमाम तमाशबीन इकट्ठे हो गये और इससे पहले कि उस पर लोगों के दो चार हाथ पड़ें वह लड़की लंगड़ाते हुए से खड़ी हुयी और लोगों से उस लड़के के साथ मारपीट न करने के लिए कहा। फिर कराहते हुए उसने लड़के से कहा पैर में चोट लग गयी है चलो पहले मेरा इलाज कराओ। अब लड़की आगे आगे और लड़का पीछे पीछे। कुछ दूर तो लड़की लंगड़ाते हुए ही चली किन्तु फिर उसने साइकिल अपने हाथ में ली और लड़के से केरियल पर बैठने के लिए कहा। उस लड़के ने कहा,"बहन जी साइकिल मैं स्वयं चलाता चलूँगा आप पीछे बैठ जाइये।" लेकिन उस लड़की ने झिड़क दिया और उसे चुपचाप पीछे बैठने के लिए कहा। मरता क्या न करता उसे लड़की की जिद और बेहूदगी के सामने झुकना पड़ा। रास्ते में कई क्लिनिक पड़े लड़के ने वहाँ इलाज कराने के लिए कहा। किन्तु लड़की ने चुपचाप पीछे बैठने के लिए कहा और बताया कि उसके घर के पास ही उसका फैमिली डॉक्टर रहता है वही इलाज करेगा। वह हर जगह इलाज नहीं करवाती। वह इतना डर गया था कि कुछ और कह सुन नहीं सका।

कोई 6-7  मिनट चलने के बाद उस लड़की ने साइकिल एक पतली सी गली में एक घर के सामने रोकी। गली जितनी पतली थी घर कहीं उससे बड़ा था। लड़की ने गेट खोला साइकिल गैलरी में खड़ी कर ली। बैठक खोलकर लड़के से सोफे पर बैठने के लिए कहा। लड़के ने फिर कहा बहन जी डॉक्टर को बुलवा लीजिये मुझे देर हो रही है। लड़की ने कहा वह चिंता न करे डॉक्टर आ रहा है। वह चुपचाप आराम करे। लड़की घर के अंदर चली गयी। लड़के की इतनी हिम्मत नहीं हुई कि वह साइकिल लेकर भाग ले। लड़की थोड़ी देर बाद कमरे में आई कुछ मीठा और ठंढा पानी लेकर। लड़के ने फिर कहा,"बहन जी वो डाक्टर..." बात पूरी नहीं हो पाई लड़की ने कहा,"वह आने ही वाला है। तुम पानी पीकर तब तक आराम करो।"

लड़के को समझ नहीं आ रहा था वह क्या करे? कुछ समय बाद एक बुलेट गाड़ी उस घर के सामने रुकी और उस पर से एक दरोगा जी उतरे।अब तो लड़के की सिट्टी पिट्टी गुम हो गयी। क्या यही डॉक्टर है जिससे इलाज करवाना है। तब तो निश्चित रूप  से इलाज लड़की का नहीं लड़के का होगा और यह सोचकर उसका कलेजा मुंह को आ गया। दरोगा जी ने एक फाड़ खाने वाली नजर लड़के की ओर डाली फिर सीधे घर के अंदर चले गये। लडका किंकर्तव्यविमूढ़ अपने आपको उल्टा लटकाए जाने की राह देख रहा था।

बैठक में लगी घड़ी में साढ़े छह बज चुके थे। स्ट्रीट लाइटें जल चुकीं थीं। साथ ही बढ़ रहा था अँधेरा और लड़के हृदय में किसी अनहोनी का भय। कोई एक घंटे बाद वो दरोगा जी घर के बाहर आये लड़के पर फिर एक नजर डाली और अपने रास्ते हो लिए। लड़के के जी में जी आया चलो यह बला टली। अब उसे कमरे पर जाने की व अपनी साइकिल और किताबों की चिंता सताने लगी। पौने आठ आसपास लड़की खाने की थाली लेकर आई। उसने लड़के से कहा वह बैठकर खाना खाए तब तक वह पडोस से डॉक्टर को बुलाने जा रही है। लड़का देख व समझ चुका था लड़की को कहीं कोई चोट वोट नहीं लगी थी सिर्फ एक नौटंकी थी मगर क्या होने जा रहा था उसे कुछ पता नहीं था। थोड़ी देर बाद वह लड़की अपनी हमउम्र एक और लड़की को लेकर वापस आई। उन दोनों में से एक ने गेट बंद कर लिया और टीवी ऑन कर उसे फुल वॉल्यूम पर कर दिया।

"बहन जी यह क्या कर रहीं हैं मुझे घर जाना है।"

अब लडकी का रूप  बदल चुका था और बात करने का अंदाज भी,"अबे बहन जी बहन जी मत कर। मैं कोई तेरी बहन वहन नहीं। मेरा भाई वो था जो अभी थोड़ी देर पहले दरोगा आया था। मेरी माँ अंधी है जो अंदर कमरे में खाना खाकर आराम कर रही है। और इस घर में कोई नहीं है। आज तुम्हे यहीं रूकना है और मेरा तथा मेरी सहेली का मनोरंजन करना है। समझे मुझे कोई चोट वोट नहीं लगी है और न ही यहाँ कोई डॉक्टर आने वाला है। यहाँ आज की रात के डॉक्टर तुम और हम दोनों मरीज।

"बहन जी मुझे घर जाने दीजिये। प्लीज।"

अबे चुप हम तुझे क्या यहाँ खाए जा रहे हैं। घर जाकर भी सोयेगा आज यहीं सो" दूसरी लड़की ने कहा।

लड़के के दुबारा कुछ कहने पर धमकी मिली,"अबे ज्यादा चूं चपड़ करेगा तो अभी चिल्लाकर मुहल्ले वालों को बुला लेंगे। और फिर पुलिस तुम्हारी जो गत बनाएगी उसे समझ ही सकते हो। लड़का ज्यादा विरोध नहीं कर सका। आज उझे समझ में आ गया था कि आखिर यह उक्ति क्यों कही जाती है,"त्रिया चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं देवो न जानाति कुतो मनुष्य:।" अगले क्षणों की मात्र कल्पना ही की जा सकती थी।

सारी रात दोनों लडकियों ने लड़के के विरोध करने पर भी पूरी रात जैसे चाहा वैसे लड़के के शरीर से खेला। दुसरे दिन भी लड़का उन दोनों लडकियों से मिन्नतें करता रहा। किन्तु लडकियों ने विभिन्न प्रकार की धमकी पटकी देकर उसे जाने नहीं दिया। अगली रात फिर वही खेल हुआ। तीसरे दिन लड़के के शरीर ने जब पूरी तरह जबाव दे दिया तब उन दोनों ने उस लडके को यह कहकर जाने दिया कि वह जब बुलाएगी लड़के को उनके मनोरंजन के लिए आना पड़ेगा नहीं तो उसने उसका नाम और पता नोट कर लिया है अपने दरोगा भाई से उल्टा सीधा बताकर अंदर करा देगी।

लड़के के अनुसार वह दिन जिस दिन लड़की से उसका पिंड छूटा और वह दिन जब मैंने उससे इस बाबत पूछा लड़का घर आने के बाद दुबारा लखनऊ नहीं गया। जब भी उससे लखनऊ जाने का नाम लिया जाता है तो वही होता है जो नहीं होना चाहिए।

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