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रविवार, 30 अक्टूबर 2011

पंछी उड़ जा


इस पल दो दानों का लालच, फिर आजीवन पराधीनता।
पंछी उड़ जा पंछी उड़ जा पंछी उड़ जा पंछी उड़ जा,
उधर नीड़ में कोई तेरा पन्थ हेरता होगा।
मम्मी पापा कह कह कातर स्वरों टेरता होगा।
तेरे मुहँ में जो भोजन है क्या पर्याप्त न होगा।
यह दाने तो माया मृग हैं, ठीक नहीं है इधर लीनता।
पंछी उड़ जा पंछी उड़ जा पंछी उड़ जा पंछी उड़ जा|
सड़क
दूर क्षितिज पर जहाँ एकाकार है धरा और अम्बर, सड़क निज के समाप्त होने की प्रतीति देती है, किन्तु होती नहीं समाप्त।
ध्येय पर पहुँच कर भी बढ़ लेती है अन्यत्र किसी दूसरे ध्येय की ओर जिस पर चलने को आतुर होते हैं पथिक।
ऐसी ही किसी सड़क पर मैं तुम और सारा संसार गतिमान है।
चलते रहो यही जीवन का साधारण सा अंकगणित है।
जिसने समझा उसी ने विकास के प्रतिमान गढ़े।
बटमारों के प्रति
तुम भी कितने हो दीन मित्र, खाना पड़ता है छीन मित्र, सुनते न काल की बीन मित्र, मति से पैदल यश हीन मित्र।

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