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बुधवार, 30 दिसंबर 2020

अजब समझ

शेयर मार्केट चढ़ रही, लेकिन मैं बेहाल।
खुले नहीं स्कूल हैं, कोरोना की चाल।।1।।
ले न सके हैं कोर्स या, मोबाइल कुछ बन्धु।
बच्चे उनके भी हुए, बिना पढ़े गुण-सिन्धु।।2।।
अजब समझ सरकार की, करती खूब कमाल।
बसें भरी हैं ठसाठस, ट्रेनें करें सवाल।।3।।
रोगी जब घटने लगे, बिना दवा-वैक्सीन।
क्यों खतरों की लोग हैं, बजा रहे फिर बीन।।4।।
कोरोना ने कम किया, मित्र! देश को तंग।
इसके भय से हो गये, बच्चे-बूढ़े दंग।।5।।
छोड़ तुम्हारे शहर को, बढ़ा न मेरे गाँव।
कोरोना को मारते, पटक-पटककर पाँव।।6।।

बुधवार, 23 दिसंबर 2020

ज़हरीली

पानी में दूध मिला, खोये में रवा।
चीनी में रेत मिली, गेहूँ में जवा।
असली की बात गई, नकली का शोर।
औषधि में जहर मिला, जहरीली हवा।।

लोटा नहीं न डोर

मेरी खुली किताब के पन्ने पलट के देख।
चाँदी के भाव बिक गये सिक्के गिलट के देख।।1।।
केवल दरोदिवार से पूछो नहीं हालात,
सुननी जो तुझको खनक तो बिस्तर उलट के देख।।2।।
यूँ तो हमारे चित्त का कुछ भी नहीं प्रसार,
ब्रह्माण्ड बस गया यहाँ थोड़ा सिमट के देख।।3।।
रूखा बहुत स्वभाव है सब जानते हैं बन्धु,
स्नेहिल हृदय समूर सा इससे लिपट के देख।।4।।
बारिश नहीं हुई तो क्या फिसलन है हर जगह,
चिकना हूँ मार्बल सा इसपर रपट के देख।।5।।
भइया 'विमल' के पास थी लोटा नहीं न डोर,
कैसे मिटी ये प्यास फिर, बादल झपट के देख।।6।।

रविवार, 20 दिसंबर 2020

कविता क्यों

लोग पूछते हैं यार तू कविता क्यों लिखता है? तो उत्तर देना लाजिमी है। बन्धु कविता लिखना सरल है इसलिए कविता लिखता हूँ। एक दो चार छः पंक्तियाँ या जितनी मर्जी हो लिख दो। तुक-बेतुक, हेतु-अहेतुक, गद्य-पद्य-गदापद्य सब कविता में समाहित हो जाता है। कविता के नाम पर लोकलाज छोड़ लोकभाषा के शब्दों को भी जगह-बेजगह प्रयोग कर सकते हैं। शब्द विकलांग, भाषा विकलांग और शैली भी विकलांग फिर भी वाह वाह अति सुन्दर लोग पढ़े वा बिना पढ़े कमेंट बॉक्स में ठोक ही देते हैं। विषय ढूँढ़ने का झंझट नहीं। उर्दू के अल्फाज हैं न गजल झोंक दो, शेर दौड़ा दो। तमाम पर्वत नदी आकाश है न आधी -अधूरी पंक्तियों में झोंक दो। पाठक अर्थ निकालने के लिए स्वतंत्र है और हम अपने नाम के आगे पीछे कवि, महाकवि  और व्यंग्यकार आदि न जाने क्या चेंपने के लिए स्वतंत्र।
अब गद्य कठिन है, शब्दों को तोड़मरोड़कर लिखने की सम्भावना शून्य, विषय-चयन और उसकी पूर्ण समझ का झमेला अलग। पता नहीं कौन ज्ञान का पिटारा खोल बैठे। लोकभाषा के प्रयोग की स्वतंत्रता भी बाधित। स्वयं के नाम के आगे पीछे जोड़ें क्या, लेखक न कथाकार न शिल्पी। कुछ भी तो खुद को समझ नहीं पा रहा। इसलिए हे बन्धु स्वान्तः सुखाय रघुनाथगाथा, मुझे कुछ ज्यादा नहीं आता।