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सोमवार, 24 मार्च 2014

लकब

सच पूछिए तो आज भी किसी को उचित रूप से सम्बोधित करने के मामले में मैं आज भी उतना ही मूर्ख हूँ जितना मैं आज से बहुत पहले था। फरवरी 2000 में मैंने एक मुक्तक लिखा मुझे आज भी ताजा लगता है। आप भी मुलाहिजा फरमायें---
किसी ने कह दिया होगा,'चाँद' उछल पड़े।
मैंने पुकारा सही नाम तो उबल पड़े।
नालायक, बेहया, बदतमीज जाने कितने,
लकब मेरी तारीफ में निकल पड़े।
लकब-उपाधि

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