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मंगलवार, 11 सितंबर 2012

"पंच गंगा"


’जिन खोजा तिन पाइंया गहरे पानी पैठ’ इस उक्ति का सत्यार्थ खोजना हो तो डॉ० अनन्त राम मिश्र ’अनन्त’ की ’पंचगंगा’ अवश्य पढ़नी चाहिये। छोटी काशी के नाम से जगत ख्यात गोला गोकर्णनाथ खीरी में रहते हुए अपने अथक परिश्रम से देश की विभिन्न जीवनदायिनी प्राणस्रोतस नदियों के सन्दर्भ में जिस काव्यात्मक ढंग से प्रस्तुतिकरण दिया है वह अनमोल,  प्रसंशनीय, पठनीय व संग्रहणीय है।
जून २०१२ में मेरा गोला जाना हुआ भोलेबाबा के दर्शन करने के लिये तो मेरी इच्छा हुई कि बड़े भाई तुल्य अनन्त जी के भी दर्शन कर लिये जायें। मैं उनके निवास पर पहुँचा। जहाँ मुझे उनकी कुछ कृतियाँ उपहार स्वरूप प्राप्त हुईं। जिनमें डॉ० साहब की "पंच गंगा" विशेष रही। यह पुस्तक उत्तर व दक्षिण की पाँच नदियों पर प्रकाश डालता हुआ एक प्रबन्ध काव्य है किन्तु यह इस अर्थ में विशिष्ट है कि पढ़ते हुये प्रबन्ध काव्य और खण्ड काव्य का आनन्द एक साथ देती है। इस काव्य में ताम्रपर्णी, शिप्रा, चर्मण्वती(चम्बल), ब्रह्मपुत्र तथा जय जाह्न्वी नदियों की अवसरानुकूल भिन्न-भिन्न छन्दों में उत्पत्ति,प्रवाह,गति, महत्व आदि पर प्रकाश डाला गया है।
जाह्नवी की दुर्दशा से कवि चिंतित होकर कह उठता है-

महानगर अति औद्योगिक स्वार्थान्ध हुए मतवाले-
नहीं विमल पुष्पांजलि तुझमें छोड़े गन्दे नाले।
प्रबल प्रदूषण-ग्रस्त, शुद्ध कब तक जलराशि रहेगी?
कालिय-द्वारा यमुना-सी तू हो गरलाक्त बहेगी।
फूल चिता के, सिक्के ताँबे के डाले जाते थे-
तुझमें जो रवि-कर-संसर्गित, परिशोधन लाते थे।
किन्तु कहाँ अब रहीं ताम्र मुद्रायें प्रचलन में?
कागज-लोहा चढ़ा रहे हैं जन तेरे जीवन में।
गंगावतरण की कथा को मानव जीवन पर रूपायित करते हुए कवि ने गंगा की आध्यात्मिक महत्ता को अपने निम्नलिखित पदों में प्रशंसनीय ढंग से व्याख्यायित किया है।
जगत-सगर-शासन में रहते साठ हजार प्रजाजन-
अश्वमेध का अनुष्ठान होता है मन का नियमन।
इन्द्र विषय-प्रेरक, मन-हय का हरण किया करता है-
लुब्ध पुरुष जिसका अनुपल अनुसरण किया करता है।(मेरी समझ से अनुपल की जगह प्रतिपल होना चाहिये)
कपिल-काल के अग्निल लोचन भस्म उन्हें करते हैं-
जो अति इन्द्रिय-लम्पट, धर्माचरण नहीं वरते हैं।
तपोनिष्ठ जिज्ञासु शिष्य ही भूप भगीरथ होता-
जो साधना भूमि-हिमगिरि पर तपकर अवितथ होता।

यदि भूगोल, इतिहास, संस्कृति और सभ्यता की अंतरंगता देखनी है तो इस पुस्तक में गंगा के हिमालय से बंगाल तक के गमन पथ के वर्णन का रसास्वादन अवश्य करना चाहिये।
राजनीति, साहित्य, कला, आध्यात्म, गीत, संगीत, नगर, गाँव, खेत, खलिहान, तीर्थ और रमणीय उपवन सभी कुछ तो सिमट गया है इस वर्णन में।
ताम्रपर्णी की उत्पत्ति की कथा अत्यधिक रोचक ढँग से प्रस्तुत की गई है। शिव-विवाह, शिव द्वारा अगस्त्य को दक्षिण में जाने की आज्ञा देना, अगस्त्य का दक्षिण की ओर जाना, विन्ध्यवासियों में सद्जीवन की अलख जगाना, विन्ध्याचल होकर उत्तर-दक्षिण वासियों का आवागमन सुलभ बनाना, राक्षसों को पराजित करना और मलयाचल की शोभा का वर्णन करना आदि प्रसंगों की कवि के द्वारा मनोहारी ढँग से इस रचना में प्रस्तुति की गयी है।
कवि केवल घट्ना क्रम के प्रस्तुतीकरण में ही अपनी दक्षता को सिद्ध करने में समर्थ नहीं है अपितु जीवन दर्शन के भी प्रस्तुतीकरण में भी समर्थ है। निम्नलिखित पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं।
वह मानव भी क्या मानव है? जो संकट से खेला न कभी।
दुख के प्रचण्ड आघातों को हँसते-हँसते झेला न कभी।
वह जीवन भी क्या जीवन है? जिसमें न प्रगति हो, धार न हो,
वह यौवन भी क्या यौवन? जो जाज्वल्यमान अंगार न हो।
श्वानों, शूकरों, शृगालों-सा, खाकर-सोकर मर जाना क्या?
जो रच न प्रगति-प्रतिमान सका, उसका रोना क्या? गाना क्या?
धुँधुआते निष्क्रिय वर्षों से, पल एक धधकता अच्छा है।
बहुसँख्य गरजते मेघों से, घन एक बरसता अच्छा है।
डॉ० अनन्त राम मिश्र ’अनन्त’ नाम है एक ऐसी प्रतिभा का जिन्होंने न केवल "पँचगंगा’ में उपरोक्त वर्णित नदियों पर काव्यसृजन किया है अपितु उन्होंने ’नर्मदा’, सरयू’ और ’मैं कृष्णा हूँ’ नाम से भी काव्य सर्जना की है जो प्रकाशित हैं किन्तु गोदावरी और कावेरी नदियों से सम्बन्धित नदी काव्य भी प्रकाशन के लिये प्रतीक्षारत है। सामूहिक रूप से उनकी नदी काव्य से सम्बन्धित सभी पुस्तकों को समाहित करते हुए "गंगायन" नाम से एक नवीन पुस्तक प्रेस में है। अनेकानेक विद्वानों ने नदियों से सम्बन्धित विभिन्न रचनायें पृथक-पृथक ढंग से लिखी हैं किन्तु डॉ० मिश्र जी ने भारत भूमि की नदियों पर सामूहिक रूप से जो अथक काव्य सर्जन किया है उसके लिये साधुवाद के पात्र हैं और मेरे जैसे नवोदित रचनाकारों के लिये आदर्श भी।


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