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रविवार, 28 नवंबर 2021

प्रयागराज या इलाहाबाद

क्यों भैया किसी ने खोजकर बताया नहीं कि इलाहाबाद का नाम इलाहाबाद इसलिए नहीं है क्योंकि वहाँ अल्लाह आबाद है। कहानी यह है कि इला नाम है सरस्वती जी का। अब गंगा और यमुना तो वहाँ प्रत्यक्ष हो गईं किन्तु सरस्वती जी थीं अदृश्य तो हमारे जैसे घोंघों ने सॉरी घाघों ने इला+इह+आ+आबाद नाम से उन्हें इलाहाबाद में प्रत्यक्ष कर दिया। सच तो यह है कि अकबर के समय में इसका नाम इलाहावास था। इला+इह+आवास। मतलब देवी सरस्वती इस लोक में निवास करती हैं। आज भी इलाहाबाद के आसपास के लोग इसे इलाहावास ही बोलते हैं। अकबर के सिक्कों पर इलाहावास और इलाहाबाद दोनों खुदे मिलते हैं। मुझे लगता है अकबर ने पहले स्थानीय नाम को खुदवाया किन्तु फिर अरबी फारसी उच्चारण से साम्यता होने के कारण इसे इलाहावास से इलाहाबाद कर दिया। साथ ही अर्थ का अनर्थ भी। कहा तो यह भी जाता है कि इसका नाम इलाहाबाद जहाँगीर के समय से शुरू हुआ।
लोग कहते हैं कि यहाँ तट पर जो किला है उसे अकबर ने बनवाया। मुझे नहीं लगता। क्योंकि अकबर एक भी दिन इस किले में रुका होता तो इस किले में मस्जिद जरूर होती आगरा, दिल्ली और फतेहपुर सीकरी की तरह। अगर हो तो पाठक अवश्य अवगत करायें। उल्टे इस किले में है पातालपुर मंदिर, अक्षय वट व सरस्वती कूप जो हिन्दू धर्म से सम्बन्धित हैं। अकबर से इस दरियादिली की उम्मीद मुझे तो नहीं है। सत्य के अनुसंधान की आवश्यकता है। 
जो भी हो अगर आप वैराग्य चाहते हैं तो हरिद्वार या उसके उत्तर जाइये, भक्ति की कामना है तो अयोध्या या मथुरा जाइये, ज्ञान की खोज में हैं तो काशी है। किन्तु निस्वार्थ भाव से चाहे प्रयागराज कहें, इलाहावास कहें या इलाहाबाद कहें। यहाँ संगम में डुबकी लगाएं और ज्ञान, भक्ति तथा वैराग्य तीनों को एक साथ पाएं।

बुधवार, 10 नवंबर 2021

मुक्तक


सत्ता के तलवों में चुभती कीलें हैं,
चोरों के सिर पर मँड़राती चीलें हैं,
ये कवि जो हरक्षण में जागा करते हैं,
चलती फिरती कोर्ट और तहसीलें हैं।।

शुक्रवार, 5 नवंबर 2021

बतकही

उइ कहिनि चलौ गंगा नहाइ, हम कहेन पापु नहिं कबहुँ कीन।
बस इतनी बात भई एक दिन, हम दुऔ परानी युद्ध कीन।।
वै पाहन कौ भगवान किये, जब कबहुँ भजन मा मस्त भये।
हम आँखि बन्द करि हिरदै मा, जगदीश्वर से बतकही कीन।।
परसादु चढ़ावै का विचारि, उइ मन्दिर अन्दर बैठि गईंं।
हम चारि बूँद पानी छिरकेन, औ ठौरइ पै परिकमा कीन।।
इन बातन ते गुस्सा हुइके, जो हाथें परा चलाई दिहिनि।
हम देवी का परसादु समझि, हँसि हँसि के तन पे सहा कीन।।