इस ब्लॉग के अन्य पृष्ठ

कक्षा के अनुसार देखें

शनिवार, 30 जनवरी 2021

कागज का मेढक


इस वीडियो में आप देखेेंगे कि एक बच्चा  जब कागज को हाथ लगाता है तो वह मेढक की तरह उछलता है। बस 10 सेकंड का समय दें 
और बालक को प्रोत्साहित करें।


कृपया पोस्ट पर कमेन्ट करके अवश्य प्रोत्साहित करें|

महात्मा गाँधी और किसान

आज महात्मा गाँधी जी की पुण्यतिथि है। मेरे लिए कोई विशिष्ट महत्व निजी तौर पर तो नहीं है। किन्तु अभी 26 जनवरी को जो लालकिले पर हुआ और जिस तरह से पुलिस ने मामले का सामना किया तो एकबारगी गाँधी जी मेरे लिए महत्वपूर्ण हो गए। 
मैं टीवी पर विभिन्न चैनलों के माध्यम से जो लाइव टेलीकॉस्ट देख रहा था तो लग रहा था कि दो चार तो जरूर लाठी डण्डों की चोट से मरे मराये होंगे। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि भारतीय पुलिस अभी भी गाँधीवादी हो सकती है।  कोई शातिर पूछ रहा था कि पुलिस क्या कर रही थी, गुण्डे लालकिले तक पहुँच गए। वास्तव में जो यह शातिर चाहता था वह पुलिस ने नहीं किया अस्तु पुलिस को साधुवाद। वरना जो शातिर यह पूछ रहा था कि पुलिस क्या कर रही थी वही शातिर लालकिले के बाहर तिरंगा उतार कर अन्य ध्वज फहराने वाले की लाश पर घड़ियाली आँसू बहाते हुए सरकार व पुलिस से यह सवाल कर रहा होता कि अपना हक माँगने की सजा पिछवाड़े पर गोली। 
कोई ऐंकर भी टीवी पर चिल्लाता देखो देखो यह नमो सरकार का किसान विरोधी चेहरा। एक बेकसूर देश भर के किसानों के हक के लिए शहीद हो गया। 
राकेश टिकैत के जो आँसू टपके वो सैलाब बन गए होते। नहीं हुआ ऐसा। किसे धन्यवाद दूँ, पुलिस को। नहीं पुलिस तो वही करती है जो उसे आदेश होता है। सत्ता पक्ष के इशारे पर आग उगलती है तो चूड़ियाँ भी पहन लेती है। क्या आदेश था राम जाने। काश आज गाँधी जी होते तो लालकिले पर अन्य झण्डे के फहरते और हिंसा फैलते देखते तो कहते जो हुआ उसकी नैतिक जिम्मेदारी लेता हूँ और असहयोग आंदोलन की तरह यह आंदोलन भी स्थगित करता हूँ।

गुरुवार, 28 जनवरी 2021

उर में उठती पीर

मिट्टी खाई गिट्टी खाई , खा डाली सीमेंट याद है।
गए पोतने दीवारों को , चेहरे पर की पेंट याद है।।1।।
डाली पर दो बन्दर बैठे, मुझको ढँग से ताक रहे थे,
गड्ढा खोद गिटैली रख के, ढक दी थी वो गेंद याद है।।2।।
बहुत बार शैतानी करके, बच जाते थे कभी कभी हम,
लेकिन फँसे सजा पाई जब, खूब दुखी थी पीठ याद है।।3।।
भरी दोपहर छुक छुक करती, जिसके नीचे रेल चली थी,
बच्चों के मन भाने वाला, वो पीपल का पेड़ याद है।।4।।
विदा हुई जब काली कोयल, पीछे पीछे दौड़ रहा था,
ठोकर खाकर गिरा जहाँ पर, वहाँ पड़ी थी ईंट याद है।।5।।
था जिस दिन स्कूल आखिरी, छूट गया कुछ बहुत कीमती,
अंकपत्र दे ठगा गया था, उर में उठती पीर याद है।।6।।

बुधवार, 27 जनवरी 2021

शामत

मुक्तक

बकरियों से भर गया उद्यान है।
और बकरा हो गया जवान है।
पत्थरों की आ गई शामत यहाँ,
रख रहा छुरों पे कोई शान है।।1।।

मेरे पास उसके लिए एक ही उपहार था,
साँसों की खुशबू थी बाहों का हार था।
चाँदी की दीवार मैं लाँघ नहीं पाया,
ऊँची थी बिल्डिंग और बन्द हर द्वार था।।2।।

मंगलवार, 26 जनवरी 2021

एक साथ तीन परेड

सबसे पहले प्रत्येक सच्चे भारतीय को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं। आज दिल्ली में हमारे साथ साथ सम्पूर्ण विश्व ने तीन परेडें देखीं। यह अपने आप में अभूतपूर्व है। पहली परेड राजपथ से जो हृदय को उल्लसित कर गया। दूसरी किसानों की परेड। जब 12 बजे से ट्रैक्टर परेड की अनुमति मिलने के वाबजूद 8:43 पर ही किसानों ने टीकरी बॉर्डर पर बैरिकेडिंग तोड़कर पैदल ही मार्च शुरू किया तो लगा कि युवा जोश है इसलिए जो कर रहे हैं शायद स्वभावगत है। हृदय में किंचित उल्लास भी हुआ और लगा कि शायद मैं होता वहाँ तो मैं भी हर्षातिरेक में बैरिकेडिंग तोड़ देता और प्रयाण ही करता। उस समय मैं टेलीविजन के सामने था। सुबह 7 बजे से दोपहर 12 :30 तक मैंने कुछ नहीं किया सिर्फ चैनल बदल बदल कर समाचार देखता रहा। भारतीय लोकतंत्र पर गर्व का अनुभव करता रहा। लेकिन दोपहर बाद तीसरी परेड पुलिस की डंडा परेड की सूचना आयी तो थोड़ा गम्भीर होना पड़ा।
आखिर गड़बड़ी कहाँ है? एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगेंगे। यह तो पिछले तीन माह से हो ही रहा था। आखिर देश को, सरकार को, किसानों को और स्वयं को शर्मसार करने की आवश्यकता क्या थी? दोषी चाहे जो हो आज की घटनाओं से हमें अनुभव हो गया है कि अभी हमें बहुत कुछ सीखना है। 
आज हम जान गए कि हमें किसी की चिंता नहीं, न संस्थाओं की, न संविधान की, न व्यवस्था की और न अपने वचनों की।
हम कब समझेंगे कि भीड़ का कोई चरित्र नहीं होता। हम अपने अधिकारों के लड़ते समय भीड़ तो इकट्ठा कर लेंगे लेकिन अपने बीच में घुसे भेड़ियों को कैसे पहचानेंगे। हम कब समझेंगे कि कोई हमारा खेल बिगाड़ भी सकता है। हमारे पास ऐसे लोगों से बचने की क्या व्यवस्था है। हमें सोचना होगा।
एक प्रश्न और वह कौन सा सन्देश किसान या सरकार देश को देने में सफल हुए जो अब तक देश तक नहीं पहुँचा था। जाहिर है इस नाटक में हमें शर्मसार होना पड़ा है।

सोमवार, 25 जनवरी 2021

परिवर्तन

भाई लोग कभी कभी बहुत निराश हो जाते हैं। कभी स्वयं को कभी विधाता को दोष देते हैं। बन्धु धैर्य रखें समय बड़ा बलवान है। वह हर घाव का इलाज रखता है।
सन 91 में दो लाइन लिखी निजी अनुभव से 

सब सोये मैं जागा फिर भी रहा अभागा।
एक सोने का हंस बनाया लोग कह गए कागा।।

फिर 2021 के विकट कोरोना काल में जब आर्थिक रूप से स्वयं की कमर टूट गई तब भी जीवन के प्रति एक नई दृष्टि विकसित हुई और फिर दो लाइन लिखी

मेरी खुली किताब के पन्ने पलट के देख।
चाँदी के भाव बिक गए सिक्के गिलट के देख।।

रविवार, 17 जनवरी 2021

रंगे सियार

समय परिवर्तनशील होता है किन्तु इतिहास-कथायें शाश्वत। यद्यपि यह हो सकता है कि समय-समय पर व्याख्याकार निजी प्रयोजनों के वशीभूत कुछ तथ्य छिपा लें, कुछ क्षेपक जोड़ दें या फिर घटनाओं की मनमानी व्याख्या कर दें। 
आप सबने संस्कृत-कथा "नील श्रृगालः" अवश्य पढ़ी होगी। एक सियार था। एक दिन एक गाँव के भ्रमण पर निकल पड़ा। यद्यपि वह बहुत होशियारी से छिपते छिपाते गाँव में पहुँचा फिर भी कुत्ते तो कुत्ते ही ठहरे। सूँघ लिया अँधेरे में और दौड़ पड़े सियार के पीछे। अब किसका कहूँ आजकल साहित्य कथाओं में भी जाति का उल्लेख करने के अपने खतरे हैं। संस्कृत साहित्यकार दूरदर्शी थे अतः उन्होंने लिखा "रजकः" अर्थात कोई रंगबाज क्षमा करें रंगरेज यानी रंगाई करने वाला। आजकल रंगबाज तो हर कोई है अलबत्ता रंगरेजी का काम प्रिंट मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक सब पब्लिक को अपने अपने ढंग से रंगकर कर रहे हैं। 
हाँ, सियार और कुत्ते तो पीछे ही रह गए। सियार आगे कुत्ते पीछे। रंग से भरी हौज दिखी ही नहीं सियार को। भय बड़ी चीज है भूत को भी होता है तभी दिन में नहीं रात को मिलता है। सियार सीधे रंग के हौज में "छपाक"। हौज से ठीक दो फुट पहले कुत्तों की रेंज खत्म। पूरा गैंग जहाँ का तहाँ। कोई आगे नहीं बढ़ा। सियार ने यह दृश्य देखा तो आराम से निकल भागा गाँव के बाहर और पहुँच गया तालाब के किनारे। अरे भाई दौड़ते-दौड़ते दम फूल गई और प्यास लग आयी। सो "जलं बिना जीवनं न अस्ति" का विचार तो स्वतः-स्फूर्त था, इसके लिए गुरु की आवश्यकता थोड़े ही है। 
अरे यह क्या तालाब में पहले से कोई जानवर उसका मुँह नोचने को तत्पर। दिखता तो उसकी अपनी बिरादरी का ही था लेकिन काया का रंग अजब सा नीला-नीला। अब मेरी कहानी यहीं से पलटा मारती है और संस्कृत से बाहर आकर सियार का रंग हरा बताती है। पाठक सोचते होंगे, क्या फर्क पड़ता है नीला या हरा एक ही बात है। जी नहीं कहानी को ध्यान से पढ़ें और फर्क समझें।
सियार ने जब हरे रंग का दूसरा सियार जल की छाया में देखा तो पहले तो डरा किन्तु अकस्मात उसके दिमाग की बत्ती जली। उसे जंगल में जो भी सियार मिलता उसको बताता कि उसका हरा रंग सर्वोच्च की देन है। यह सर्वोच्च क्या है उसने भी नहीं देखा। उसे सिर्फ मैसेज मिला कि तेरे पर एक विशेष ज्योति प्रकटी है उसके प्रभाव से जो तू कह देगा वही अंतिम सत्य माना जायेगा। कोई तर्क-वितर्क नहीं। तर्क-वितर्क करना उस सर्वोच्च की इच्छा का अनादर समझा जाएगा और उसे नर्क की आग में पकाया जाएगा और उसे पुण्यवानों के द्वारा स्वाद ले-ले कर डकारा जाएगा।
स्वाभाविक रूप से जंगल के जो सियार कुछ कत्थई, भूरे या भगवा रंग के थे। उनमें से कुछ लालची सियारों के मुँह में पानी आया। अहा! अभी तक तो दूसरे जानवरों का मांस उड़ाते थे अब उन सियारों का मांस उड़ायेंगे जिन्हें नर्क की आग में पकाया जाएगा। सारे लालची, नीच, भयभीत और भ्रात-कुल-हन्ता हरे रंग में रंग लिए।
लेकिन ओरिजनल सियार संख्या में ज्यादा थे अतः रंगे सियार भागकर जंगल के एक कोने में पहुँचे। थोड़ा दम लिया। काफी सोचविचार के बाद इस नतीजे पर पहुँचे जब तक संख्या में कम रहोगे, बेदम रहोगे। संख्या ज्यादा होगी तो दूसरों की नाक(स्वर्ग) में दम करोगे। इसके लिए रक्तसम्बन्ध भी उपेक्षित कर दो। संख्या बढ़ने के साथ खून का रिश्ता मजबूत हो जायेगा। उस दिन से आजतक फार्मूला चालू है। स्वयं की संख्या बढ़ाओ, जंगल के कोने -कोने में फैल जाओ और सर्वोच्च का यह आदेश जैसे भी हो नीचा दिखाकर, फूट डालकर, समझा-बुझाकर या मारकाट मचाकर समझाओ कि उसको किसी ने नहीं देखा जिसने सब सियारों को बनाया लेकिन सर्वोच्च वही है जिसने हरे सियारों को बनाया। सत्य वही है जो पहले सियार ने समझाया। कोई तर्क करे तो उसे कत्ल कर दो। आजतक चल रहा है। 
लोभ, लालच, भय, मोह, मद और मत्सर किसे नहीं सता सकते। मनुष्य पराजित हो जाता है सियार तो सियार ठहरे क्या ओरिजनल क्या रंगे हुए। जंगल का रंग एक समय तक तेजी से बदला। लेकिन बड़ी संख्या में फिर भी ऐसे सियार बचे जो ओरिजनल थे। वे इस बात को समझ चुके थे कि नाखूनों के आक्रमण का जवाब नाखूनों से देना है और उन्होंने दिया भी और अपने अस्तित्व को बचाया भी। कुछ उत्तम किस्म के हरे सियार भी ओरिजनल सियारों से सहानुभूति तो रखते हैं और मानते हैं कि सियार तो सियार क्या हरे क्या लाल। वे यह भी जानते हैं कि हरे सियार भी कभी न कभी लाल थे। लेकिन हिम्मत नहीं है सच का सामना करने की। वैसे अब हरे सियार भय खाने लगे हैं क्योंकि ओरिजनल सियार भी वही हथियार अपनाने लगे हैं। 
उस कहानी का अंत सब जानते हैं इसलिए लिखूँगा नहीं। इस कहानी का कुछ अलग होगा इसकी उम्मीद न करें। क्योंकि जंगल में सियार ही रहेंगे रंगे सियार नहीं।

शनिवार, 16 जनवरी 2021

मेरे पिता जी

आज 16 जनवरी है। मेरे लिए सबसे मनहूस दिन है। आज ही 2020 में मेरे पिता जी मुझे इस जगत की जिम्मेदारी सौंप कर अनन्त यात्रा के नवीन गन्तव्य की ओर प्रस्थान कर गए थे। यूँ तो आना-जाना संसार का शाश्वत सत्य है, अतः सुखी अथवा दुःखी होने का कोई कारण नहीं है फिर भी अपने को समझा पाना अति कठिन कार्य है। आशा है कि वे जहाँ कहीं भी होंगे ईश्वर की कृपा से सुखी होंगे और मेरे सहित समस्त परिवार व इष्ट वान्धवों को अपना आशीर्वाद ही प्रदान कर रहे होंगे। 
माँ के पिता इस संसार में द्वितीय गुरु होता है। उनके मार्गदर्शन का बहुत बड़ा अंश अस्वीकार करने के बाद भी आज जो कुछ हूँ मुझे लगता है कि उनकी प्रतिकृति हूँ अथवा कभी-कभी मुझे लगता है वे अपना भौतिक शरीर छोड़कर आत्मिक रूप से मेरे अन्दर बस गए हैं। उनके रहते मैं निश्चिन्त व निर्द्वन्द्व रहता था। उनके बाद मुझे हमेशा यह भय रहता है कि कहीं मैं अपने दायित्वों के निर्वहन में असफल तो नहीं हो रहा। कहीं ऐसा तो नहीं किसी को यह अहसास हो कि उनके बाद इस परिवार में उसकी उपेक्षा हो रही हो। उनकी अनुपस्थिति ने अचानक ही मुझे अपने परिवार में वरिष्ठ बना दिया और मैं इसके लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं था। सच पूछो तो मैं सदैव कामचोर टाइप का व्यक्ति रहा हूँ। जब तक सामने न आये तब तक मैं काम को हाथ में लेने से बचता रहता हूँ तथापि जब मेरी उम्र केवल 10 वर्ष की ही रही होगी तब से कभी एक महीना लगातार उनके साथ नहीं रहा। वे गाँव में अकेले रहे और मैं पढ़ाई लिखाई के सिलसिले में कस्बे में अपने सभी भाई बहनों व माँ के साथ। वे चौथे पाँचवे दिन घर आते मुँह-अँधेरे और सुबह तड़के ही निकल लेते थे। 10, 20, 50 रुपये मेरी माँ के हाथ पर रखते और उनमें अगले 4 से 5 दिन का खर्च चलता या कहें चलाना पड़ता। ज्यादा के लिए कहने पर कहते मुझे बेच लो, कहीं डकैती नहीं डालूँगा। अधिक कहने पर पूरे परिवार की कुटाई तय थी।
मेरी माँ भी जितना दे जाते थे उसी में सन्तोष करती और मजे की बात उसमें भी वह कुछ न बचा लेती। मैं समझता हूँ मेरे पिता जी घर के जितने अच्छे नियन्त्रक थे मेरी माँ उतनी ही अच्छी प्रबन्धक हैं। बिना डिग्री की प्रबन्धक हैं।
मेरा पिता जी यद्यपि साख़र्चों में नहीं गिने जाते थे तथापि परिवार की कोई अनिवार्य आवश्यकता कभी अपूर्ण नहीं रही।
अपने पिता जी से मैंने जीवन का सबसे बड़ा मन्त्र सीखा, "भूखे रहो तो ठीक कभी उधार मत लो" अगर इतना कर लिया तो सिर कभी नीचा नहीं होगा। 
और भी अनन्त कथा है। पता नहीं क्यों आज उनकी बड़ी याद रही थी सोचा शेयर कर लूँ।