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शुक्रवार, 31 मई 2019

एफबी

तुम भी एफबी पर आये हो वे भी एफबी पर आयीं।
तुम तो असली ले आये पर फेक आईडी वो लायीं।
तुम क्या समझे शाम को मैडम क्योंकर उखड़ीं उखड़ीं थीं,
उसी आईडी के परदे से तुमको ठीक परख पायीं।।
एफबी-फेसबुक

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बुधवार, 29 मई 2019

दिल से दिल

दिल से दिल की बात करी, और  चल दिये।
मन में न कोई प्रश्न था, पर उसने हल दिये।।1।।
चढ़कर चिराग हुस्न का रक्खा मुंडेर पर,
जालिम को खबर ना हुई, कैसे कतल किये।।2।।
तुम भी तो एक रोज गए थे उसी डगर,
पत्थर तुम्हें कहा क्या, तुम तो पिघल लिये।।3।।
सब कुछ बजार में मुझे मन का मिला नहीं,
जिन्दा रहा हूँ इसलिये अबतक गरल पिये।।4।।
माना कि दूर लगती है सूरज की रोशनी,
पर ज्येष्ठ का महीना, तन मन विकल किये।।5।।
यह प्रेम की कमाई कोई नौकरी नहीं है,
अब तक वसन सिये जो उज्ज्वल 'विमल' सिये।।6।।


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विश्वास रहे

तुमको चाहते हैं अहसास रहे।
तू दूर रह सके या फिर पास रहे।
मर गया होगा तू दुनिया के वास्ते,
दिल में हमारे जी रहा विश्वास रहे।।

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रविवार, 26 मई 2019

पांडे जी का बेटा

आज पांडे जी के बेटे से मुलाकात हो गई, बेचारा बहुत परेशान है इन दिनों। गर्लफ्रेंड तो गर्लफ्रेंड बहन भौजाइयाँ सभी कन्नी काट के निकल जाते हैं और बीबी शक की नजर से देखती है सो अलग। ऐसा हो भी क्यों न जब खुले आम उसके मुँह से कहलवाया जा रहा है, "पांडे जी का बेटा हूँ, चिपक के चुम्मा लेता हूँ।"
अजी ये भी कोई बात हुई सीधे सीधे पांडे जी के बेटे का चरित्र चित्रण कर रहे हो और मजे ले रहे हो। असली मजा तो तब आता है जब आपको ये पता चलता है कि इस गाने से प्रभावित होकर किसी और का लड़का आपकी लड़की को चिपककर चुम्मा ले लेता है और आप मुँह छुपाते फिरते हो। अरे भाई शादी ब्याह का मनोरंजन अपनी जगह, अभिव्यक्ति की आजादी अपनी जगह, और जाति वर्ग का चरित्र चित्रण अपनी जगह। हम तो ठहरे ब्राह्मण सुन लेते हैं उल्लुओं की बातें भी। अभी कुछ दिनों पहले लोग पहुँच गए थे कोर्ट में बाबा तुलसीदास को लेकर कि कुछ चौपाइयाँ वर्ण व्यवस्था के सम्बंध में आपत्तिजनक हैं, उन्हें श्रीरामचरितमानस से निकाल दिया जाए। पता नहीं निकाली गईं या नहीं। वह तो रही पाँच सौ वर्ष पहले की बात, किन्तु यह मामला ताजा है। पांडे जी का बेटा बहुत भला है वह यूँ ही किसी को चिपककर चुम्मा नहीं लेगा, यह भलमनसाहत उसे अपने बाप से मिली है। देखो सबूत मत माँगो क्या इतना काफी नहीं है कि पांडे जी ने गाना लिखने, गाने, रिकॉर्ड करने व बजाने वाले का बैंड नहीं बजाया। और तो और कहीं आपत्ति तक दर्ज नहीं कराई।
अब मैं इतना क्यों लिख गया? तो भाई मैं शुक्ला हूँ और पांडे जी का बेटा मेरा भी कुछ लगता है मुझे उससे सहानुभूति है। मुझे अमिताभ बच्चन अभिनीत वह गाना याद आता है,"मुहल्ले वालों अपनी मुर्गी सम्भालो मेरा मुर्गा जवान हो गया।" कहीं वाकई पांडे जी का बेटा अपनी पर आ गया और चिपक के चुम्मा लेने लगा तो पता नहीं किस किस को अपनी अपनी बेटियाँ सम्भालनी पड़ जायेंगी।

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बुधवार, 22 मई 2019

पपीता हुआ हूँ

बिना शायरी के ही जीता हुआ हूँ।
अभी शेर था, अब से चीता हुआ हूँ।
किसी से नहीं जीत की चाह बाकी,
फलों के जगत में पपीता हुआ हूँ।।

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रविवार, 19 मई 2019

कल्पनालोक



ज्यों हुई दृष्ट मति हुई भ्रष्ट, सब भूले अपना काम अरे!
देखा एक षोडशी बाला को लाखों का काम तमाम करे|
कल्पनालोक में खड़े खड़े, पथिकों पर ऐसे वार करे|
तन छार छार हो जाता था, नयनों में ऐसी धार धरे|
जिसने भी देखा बाँकपना, जो जहाँ खड़ा था ढेर हुआ|
जिस पर भी उसकी दृष्टि उठी, यह मेरी है मति फेर हुआ|
जिससे भी उसके नैन मिले, समझा उसने कि कुबेर हुआ|
जिस पर भी उसके होंठ हिले, समझा कि जंग का शेर हुआ|
चपला सी चंचल चक्षु चाल, कभी इधर गयी कभी उधर गयी|
जब जिसके उर महसूस किया तब उसके दिल में उतर गयी|
यह एक दृष्टि थी लगा किन्तु सारे समूह में बिखर गयी|
तब लगा चन्द्रिका छोड़ चाँद साड़ी दुनिया में पसर गयी|
तिरछी कमान भौहें उसकी, ज्यों अर्जुन का गांडीव हुआ|
आँखें उसकी जहरीली थीं, बिल में नागिन सा जीव हुआ|
सीपी में मोती लगे नहीं ज्यों भँवरा बिच राजीव हुआ|
थे होंठ जरा भी हिले नहीं लेकिन भाषण सुग्रीव हुआ|
अँगड़ाई अलकें थीं लेतीं, अहसास कराती यौवन का|
उसके केशों से खेल सकें, यह सोच रहा सबके मन का|
यूं लगा पी रहे प्रथम बार, थे रूप रंग नारी तन का|
जिसने भी देखा टिका वहीं, था ध्यान नहीं तन मन धन का|
सबके मन में था जोश बहुत रह रह कर बाहें फड़क उठीं|
उसके तन मर्दन को नर तो नर रहा नारियां मचल उठीं|
सिर कुण्डलिनी फुंकार उठीं, शायद डसने को विकल उठीं|
इन्हें बाँधने को फिर सत्वर, कर कमल पंखुरीं सकल उठीं|
उसके होठों को निरख निरख लज्जित गुलाब हो जाता था|
उसकी आँखों का नशा देख, साकी शराब रो जाता था|
उसकी तन की छवि से तौल तौल कंचन खराब हो जाता था|
उसके गालों को बिना छुए, उनका हिसाब हो जाता था|
स्वर्ण हंसिनी सी ग्रीवा पर जिसकी भी नजरें चलीं गयीं|
उस काम रूपिणी के द्वारा, उसकी ही नजरें छ्लीं गयीं|
उसके अधरों के चुम्बन को, लालायित सांसें चलीं गयीं|
उसके गालों के छूने को अंगुलियाँ भी बेकलीं हुईं|
उसके वक्षरणस्थल में कितनी ही नजरें खेत हुईं|
कितनी ही नजरें श्याम हुईं, कितनी नजरें श्वेत हुईं|
कितनों के मुँह में जल जिह्वा अधरों पर मटियामेट हुई|
कितने ही वहाँ पुराने थे कितनों की पहली भेंट हुई|
यह अनार या बेल न महुआ, अंगूरों से बढ़ चढ़कर थे|
कुल्या के कंगूर नहीं न सागर की उत्ताल लहर थे|
सरिता के दो छोर नहीं थे ना पर्वत की कोई डगर थे|
ऐसे थे सुनो वे ज्योति पुंज लाखों पर ढा गये कहर थे|
कटि और कटि के उत्तर सबने हरिद्वार की गंगा समझा|
नाभि क्षेत्र छवि चक्रतीर्थ कर नैमिषारण्य बहुरंगा समझा|
या फिर इसको तुलाधार कर रूप व काम पसंगा समझा|
कवि ने यहीं रूप कस्तूरी रख कर इसे कुरंगा समझा|
इसके नीचे जब दृष्टि गयी, तो मीनमुखी वह सृष्टि द्वार|
नर को नारी से भिन्न करे इस तन में वह है दशम द्वार|
यदि कूप कहूँ तो छजे नहीं, है सीमायुत सागर अपार|
यह उससे भी कुछ बढ़ था कह सकता हूँ ब्रह्माण्ड अपार|
जाने कितनों शीश गये कितनों के गये हैं राज पाट|
कितनों के सुखसाज गए हैं कितनों के गये हैं हाट बाट|
इस भंवर जाल ने माया के कितनों की नींद कर दी उचाट|
इसी गढ़े गिर विश्वामित्र का हो गया युगों का तप तिराट|
उस नर की क्या औकात रही जो देख षोडशी झुका नहीं|
उसकी आँखों में परख कहाँ जो देख रूपसी रूका नहीं|
उसके उर में है प्यार कहाँ अब तक निगाह भर चुका नहीं|
उस दिल को पत्थर ही कहिये, जो देख जवानी फुंका नहीं|



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बुधवार, 15 मई 2019

प्रेम और चुनाव

चुनाव और प्रेम में भी अजीब घालमेल है,
सिर्फ शब्दों, इशारों व भावनाओं का तालमेल है।
वहाँ भी चुनाव था,
यहाँ भी चुनाव है,
वहाँ न कुछ प्रभाव था,
यहाँ न कुछ प्रभाव है,
दिल खोलकर सब कह दिया,
तब भी न कुछ दुराव था,
अब भी न कुछ दुराव है।।

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सोमवार, 13 मई 2019

फेंकू

बादलों का ये फायदा भी?
कि प्रेमिका से मिलने पाकिस्तान चले जाओ,
कोई देखेगा नहीं,
वैसे कभी कभी फेंकू होना भी बुरा नहीं।

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रविवार, 12 मई 2019

प्रथम संस्करण अन्तिम हो गया।
ढेरों साहित्य यूँ ही खो गया।
मुफ्त में बंटा और रद्दी हो गया,
इसलिये मैं प्रकाशन में फिसड्डी हो गया।।.

ऐसा मैं इसलिये कह रहा हूँ कि कुछ देर पहले मुझे 2004 में छपी हुई श्री बाबू राम शुक्ल 'मंजु' निवासी सीतापुर रचित दो पुस्तकें महाकाव्य 'रघुवंशम' व 'कुमार सम्भवम' के अवधी भाषा के काव्यानुवाद प्राप्त हुए हैं। पुस्तक के पढ़ने के बाद लगता है निश्चय ही कवि ने अथक प्रयास किया होगा किन्तु मैं निजी तौर पर जानता हूँ कि कवि का जीवन मुफलिसी में गुजर गया। कितना अच्छा होता कि उसने अपना समय बाजार के लिए लेख लिखने में लगाया होता तो शायद हाथोंहाथ लिया जाता।

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