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सोमवार, 25 अप्रैल 2016

सुबहें आतीं जातीं रहतीं



०५/०४/१९९५
दरवाजे पर नई सुबह की दस्तक तो है।
किन्तु आदमी भरे रजाई में खुर्राटे।
खोद चुकी है किरण प्रात की कब्र तमस की।
कामचोर सूरज चाहे पर सैर सपाटे।
खट्टे हैं अन्गूर उँचाई पर लटके जो।
हड्डी नीरस पड़ी भूमि पर कुत्ता चाटे।
कह देना आसान फूल दे काँटे ले लो।
किन्तु जख्म का दर्द न कोई आकर बाँटे।
सुबहें आती जाती रहती चमगादड़ की बस्ती।
फ़र्क उसे क्या अन्धकार में जीवन काटे।

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

फेसबुक 2



ये मेरी अत्यधिक छोटी छोटी कवितायेँ वे हैं जो मैंने जब तब फेसबुक पर व्यक्त कीं हैं|
4
6/6/2014
जनता जागी तुम भी जागो, नेतागण की जात।
पूरा बहुमत दे बनवाई हाथी की सरकार।
दलित की बेटी पत्थर जोड़ा भरा निजी भण्डार।
जनता ने जब मौका पाया बतला दी औकात।
जनता जागी ...
धरती-पुत्र को साईकिल देकर जब लखनऊ को भेजा।
आतंकी जन निर्भय साधे बेटा भाई भतीजा।
केवल पांच सांसद घर के मुट्ठी भर का भात।
जनता जागी...
मोदी तुमको जनता ने अपना सर्वस्व दिया है।
अंगद का तुम पांव बनो ऐसा विश्वास किया है।
जनता की उम्मीदें जागीं हो कुठाराघात।
जनता जागी...
5
6/6/2014
नहीं इस पार जाना है, नहीं उस पार जाना है।
जहाँ पर याद प्रभु आये, उसी मझधार जाना है।
किसी को बुतपरस्ती जाहिली होगी मुझे लेकिन,
भगत प्रहलाद सा नरसिंह का दीदार पाना है।
6
29/6/2014
बारिश हो... तो...
मेरी टीन तुम्हारा छप्पर,
बारिश हो...तो...किसी एक पर?
छत भीगे या आँगन भीगे,
भीगे खेत महावन भीगे,
बचपन भीग बुढ़ापा भीगे,
या मस्ताना यौवन भीगे,
मेरी कार तुम्हारा ट्रैक्टर,
बारिश हो...तो...किसी एक पर?