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शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

हे अवनि आत्मज

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हे-अवनि-आत्मज/
हे अवनि आत्मज!
आज आसुरी राज जगत पर विविध वेश में विविध रूप धर।
घोर प्रलय का घोष कर रहा चोर मोदमय संत मर रहा।
शरण माँगता दिवस प्रात से साँझ आज है उच्च प्रात से।
न्याय धरणि को आज चाहिये ज्योतिपुंज का राज चाहिये।
साथ साथ हों पथिक आओ चलें अन्धकार का मन आओ दलें।
एक बार जय बोल भरतसुत और हस्तकर सद्य शस्त्रयुत।
या भवानिरिपु या कि स्वयं तन एक नष्ट करें आज काल बन।
खड्ग हस्त धर शत्रु शीश रज कर विलीन हे अवनि आत्मज!
गौरि माँगती आज रक्त रिपु सद्य समर्प दे ध्यान धान्य वपु।
@विमल कुमार शुक्ल'विमल'