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शनिवार, 2 फ़रवरी 2013
शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2013
ढंग के कपड़े
साज सिंगार प्रभाव विचित्र कभी मन
में अनुमान किया करो।
ओ! सजनी! तन वस्त्र धरे पर श्री
छवि का धरि ध्यान लिया करो।
रूपसि रूप की पारखी हौ तुम तो पटुता
के प्रमाण दिया करो।
सृष्टिज अंग मिला सुभगे निज शक्ति
अमूल्य का मान किया करो॥१॥
तन ढाँप रहे ढंग के कपड़े बहू बेटी
के बीच का भेद बतावैं।
रमणी दल बेढँग वस्त्र धरे गणिका-गण
का अहसास करावैं।
पहिनावा लखे जन वाद करें जननी और
सास के चिन्ह गिनावैं।
ननदी और भावज भेद कहाँ पहिराव में
बुद्धि सुजान सुनावैं ॥२॥
देखा अभी था तो हूक उठी कसके इसको
निज अंग लगाऊँ।
देख रहा अब तो हिय में चरणाम्बुज
धो चरणामृत पाऊँ।
था मन में कि कपोल छुऊँ अब है मन
में निज शीश चढ़ाऊँ।
है पहिनावे में ये क्षमता कुलदीपिका
से कुलहीना कराऊँ॥३॥